हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में उतरी उतराखंड की हर राजनीतिक पार्टी ने राज्य के विकास के बड़े-बड़े दावे किए। लेकिन असल सवाल विकास का नहीं विकास के मायने का है। तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए जा रहे इस विकास के नारे के केंद्र में दरअसल उत्तराखंड की आम जनता नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों से मुनाफा कमा रहे उद्योगपति तथा ताकतवर लोग हैं। और इसका एक स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलता है पिथौरागढ़ जिले के भूनाकोट ब्लॉक से 8 किमी. के दायरे के अनेकों गांवों में जहां के खेत, जल स्रोत से लेकर पर्यावरण तक सब कुछ अवैध खनन की वजह से बर्बाद हो रहा है। स्थानीय जनता के तमाम प्रतिरोधों के बावजूद यह खनन रुकने का नाम नहीं ले रहा है क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त है स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य तथा केंद्र स्तरीय मंत्रियों का। हम यहां पर आपके साथ इस इलाके में हो रहे अवैध खनन और उसकी वस्तुगत परिस्थिति पर एक रिपोर्ट साझा कर रहे है;
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के भूनाकोट ब्लॉक से 8 किमी. की दूरी पर स्थित अनेक गांव पिछले कई वर्षों से अवैध खनन की विभीषका झेल रहे हैं। बसेड़ा जागपत लेलू कुसौली कुंडार बांदनी इत्यादि गांवों में अवैध खनन की वजह से पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। खनन से निकलने वाला मलबा जाके खेतों में जमा हो जाता है जिससे खेती की जमीन पूरी तरह से नष्ट हो जा रही है। इस खनन की वजह से इलाके के अधिकांश जल स्रोत सूख चुके हैं। पहले से ही पेय जल की समस्या से जूझ रहे उत्तराखंड के निवासियो के लिए यह अवैध खनन उनके जल स्रोतों के लिए अभिशाप बन चुका है।
निरंतर खनन पहाड़ों को खोखला कर रहा है जो एक मानवजनित आपदा को जन्म दे सकता है। प्रत्येक खनन क्षेत्र से प्रतिदिन औसतन 10-12 ट्रक रेता निकाला जाता है। निकाले जाना वाला पत्थर स्थानीय स्तर के हर तरह के निर्माण कार्य के काम आता है साथ ही सरकारी योजनाओं जैसे नरेगा या फिर सड़क निर्माण इत्यादि में इसी पत्थर का इस्तेमाल किया जा रहा है। बिना किसी खास लागत के होने वाला यह खनन इन खनन माफियाओं को शुद्ध मुनाफा और इस क्षेत्र की जनता को विनाशकारी स्थिति दे रहा है। अपने इस मुनाफे का फायदा उठाकर इन खनन माफियाओं ने स्थानीय प्रशासन से लेकर विधान सभा तक सभी को खरीद रखा है और बेधड़क पहाड़ के पहाड़ तबाह किए जा रहे हैं।
इस खनन के खिलाफ इस इलाके के लोग पिछले कई सालों से संघर्षरत हैं किंतु इन तमाम विरोधों के बावजूद इस क्षेत्र में प्रशासन खनन माफियाओं के साथ मिलकर खनन के पट्टे बड़े आराम से बांट रहा है। इन अवैध खनन माफियाओं को न केवल स्थानीय प्रशासन से सहयोग मिल रहा है बल्कि इसमें विधायक तथा राज्य स्तर के मंत्री भी शामिल हैं। एक स्थानीय निवासी राजेश के अनुसार इलाके का विधायक मयूख महर खुद एक बड़ा खनन माफिया है जो कई स्थानों पर निजी स्तर पर अवैध खनन करवाता है। और इसी का परिणाम है कि स्थानीय जनता द्वारा इन खनन माफियाओं के विरुद्ध किया जा रहा विरोध-प्रतिरोध बहरे कानों पर पड़ रहा है।
जाखपंत के निवासी देवेंद्र पंत ने बताया कि पिछले 10 साल से इस इलाके की स्थानीय जनता नया देश जनमंच के बैनर तले इन अवैध खनन माफियाओं तथा प्रशासन के गठजोड़ के खिलाफ संघर्ष कर रही है। जनता के इन संघर्षों के दबाव के चलते जाखपत में नवंबर 2016 में प्रशासन को मजबूर होकर खनन के काम पर रोक लगानी पड़ी। किंतु यह सफलता ज्यादा लंबे समय तक नहीं टिक पाई। जल्द ही खनन कार्य फिर से शुरु हो गया बस अंतर यह था कि अब यह खनन माफिया पहले की तरह से पूरी दबंगई के साथ खनन को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं। इस घटनाक्रम में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन तब आया जब रोक के तुरंत बाद अचानक से आंदोलन का पूरा नेतृत्व पीछे हट गया। स्थानीय निवासियों का मानना है कि दबाव को देखते हुए नेतृत्वकारी लोगों को डराया धमकाया गया है जिसकी वजह से वह अब खुल कर सामने नहीं आ पा रहे हैं।
खनन के दुबारा शुरु होने पर लोगों ने स्थानीय प्रशासन से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक लोगों ने गुहार लगाई लेकिन किसी भी स्तर पर कोई कार्रावाई नहीं की गई। यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे गए एक पत्र पर प्रधान मंत्री कार्यालय द्वारा राज्य के खनन विभाग के मुख्य सचिव को तुरंत कार्रावाई का निर्देश भी जारी किया गया किंतु दो हफ्ते बीत जाने के बाद भी अभी तक किसी प्रकार की किसी कार्रवाई की शुरुआत तक नहीं की गई है।
गांव वालों से बात करने पर पता चला कि अवैध खनन की मंजूरी के लिए पट्टा लेते समय भू-गर्भ विज्ञानी से लेकर आपदा नियंत्रण विभाग तक सभी की तरफ से अनापत्ति प्रमाण पत्र आराम से मिल जाता है। हालत तो यह है कि किसी भी विभाग का कोई भी अधिकारी पट्टा लिए जा रहे क्षेत्र का दौरा तक नहीं करता है। इसी में यह भी पता चला कि लेलू गांव में तो हालत यह है कि खनन के लिए पट्टा तक लेने की जरूरत नहीं पड़ती। वहां सिर्फ स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों को रिश्वत देकर किसी भी जगह पर खनन शुरु करवाया जा सकता है वह भी राज्य स्तरीय संरक्षण के तहत।
यह अवैध खनन जहां एक तरफ इन इलाकों की आजीविका और पर्यावरण नष्ट कर रहा है वहीं दूसरी तरफ यह यहां के माहौल को भी खराब कर रहा है। जहां एक तरफ स्थानीय महिलाओं के लिए यह एक सुरक्षा का प्रश्न बन चुका है वहीं दूसरी तरफ खनन के साथ-साथ स्थानीय युवाओं में नशे की लत में भी वृद्धि हो रही है।
गांव के लोगों के ने बताया कि जहां गांव से लगे जंगलों से महिलाएं महीने में सिर्फ दस दिन लकड़ी ले सकती हैं वहीं दूसरी तरफ खनन में लगे ठेकेदारों को जंगल से लगातार मुफ्त लकड़ी मिलती है। उत्तराखंड सराकर का स्वच्छता पर पूरा जोर रहता है किंतु खनन के लिए बाहर से लाए गए मजदूरों के लिए शौचालय जैसी कोई सुविधा नहीं जिसके परिणाम स्वरूप आस-पास के गधेरे और जल स्रोतों का इन मजदूरों द्वारा शौच के लिए इस्तेमाल करने की वजह से गंदगी भी बढ़ रही है।
लंबे संघर्षों के बाद जब उत्तराखंड का पृथक राज्य के रूप में गठन हुआ तो यहां के स्थानीय निवासियों ने अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुनहरे भविष्य का सपना देखा था किंतु इस सपने की हकीकत एक अलग तस्वीर के रूप में उभर कर आई। उत्तराखंड के दूर-दराज के गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं वहीं दूसरी तरफ राज्य में आसीन हर सरकार निरंतर देशी-विदेशी निवेशकों को यहां निवेश करने के लिए हर छूट उपलब्ध करवा रही है। उत्तराखंड के हर कोने में आज बड़े बांधों से लेकर पहाड़ों को काटकर होटल रिजॉर्ट इत्यादि अंधा-धुंध तरीके से बन रहे हैं। उद्योगपतियों के मुनाफे की निरंतर बढ़ती हवस को पूरा करने के लिए पहाड़ों को काटकर किया जा रहा यह निर्माण कार्य पहाड़ों को पूरी तरह से खोखला कर रहा है। और इसमें सहयोग मिल रहा है राज्य तथा केंद्र सरकार की कॉर्पोरेट पक्षधर नीतियों का। राज्य और कॉर्पोरेट गठजोड़ से उत्तराखंड के पहाड़ों की तबाही का एक मंजर हमने 2013 में आई आपदा के रूप में हमने देखा और जिसकी कीमत चुकाई वहां की स्थानीय जनता ने। विकास के नाम पर चल रहा यह खेल यदि जल्द ही न रोका गया तो इसमें कोई शक नहीं है कि बहुत जल्द उत्तराखंड विनाश के ऐसे कगार पर खड़ा होगा जिसे रोक पाना असंभव होगा।
यह अवैध खनन जहां एक तरफ इन इलाकों की आजीविका और पर्यावरण नष्ट कर रहा है वहीं दूसरी तरफ यह यहां के माहौल को भी खराब कर रहा है। जहां एक तरफ स्थानीय महिलाओं के लिए यह एक सुरक्षा का प्रश्न बन चुका है वहीं दूसरी तरफ खनन के साथ-साथ स्थानीय युवाओं में नशे की लत में भी वृद्धि हो रही है।
गांव के लोगों के ने बताया कि जहां गांव से लगे जंगलों से महिलाएं महीने में सिर्फ दस दिन लकड़ी ले सकती हैं वहीं दूसरी तरफ खनन में लगे ठेकेदारों को जंगल से लगातार मुफ्त लकड़ी मिलती है। उत्तराखंड सराकर का स्वच्छता पर पूरा जोर रहता है किंतु खनन के लिए बाहर से लाए गए मजदूरों के लिए शौचालय जैसी कोई सुविधा नहीं जिसके परिणाम स्वरूप आस-पास के गधेरे और जल स्रोतों का इन मजदूरों द्वारा शौच के लिए इस्तेमाल करने की वजह से गंदगी भी बढ़ रही है।
लंबे संघर्षों के बाद जब उत्तराखंड का पृथक राज्य के रूप में गठन हुआ तो यहां के स्थानीय निवासियों ने अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुनहरे भविष्य का सपना देखा था किंतु इस सपने की हकीकत एक अलग तस्वीर के रूप में उभर कर आई। उत्तराखंड के दूर-दराज के गांव आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं वहीं दूसरी तरफ राज्य में आसीन हर सरकार निरंतर देशी-विदेशी निवेशकों को यहां निवेश करने के लिए हर छूट उपलब्ध करवा रही है। उत्तराखंड के हर कोने में आज बड़े बांधों से लेकर पहाड़ों को काटकर होटल रिजॉर्ट इत्यादि अंधा-धुंध तरीके से बन रहे हैं। उद्योगपतियों के मुनाफे की निरंतर बढ़ती हवस को पूरा करने के लिए पहाड़ों को काटकर किया जा रहा यह निर्माण कार्य पहाड़ों को पूरी तरह से खोखला कर रहा है। और इसमें सहयोग मिल रहा है राज्य तथा केंद्र सरकार की कॉर्पोरेट पक्षधर नीतियों का। राज्य और कॉर्पोरेट गठजोड़ से उत्तराखंड के पहाड़ों की तबाही का एक मंजर हमने 2013 में आई आपदा के रूप में हमने देखा और जिसकी कीमत चुकाई वहां की स्थानीय जनता ने। विकास के नाम पर चल रहा यह खेल यदि जल्द ही न रोका गया तो इसमें कोई शक नहीं है कि बहुत जल्द उत्तराखंड विनाश के ऐसे कगार पर खड़ा होगा जिसे रोक पाना असंभव होगा।
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