रिकोङ्ग्पिओ में कब्जा हटाओ अभियान के विरुद्ध विशाल विरोध प्रदर्शन

हिमालय नीति अभियान
हिमलोक जागृति मंच
वन अधिकार संघर्ष समिति किनौर
प्रेस विज्ञप्ति
रिकोङ्ग्पिओ में कब्जा हटाओ अभियान के विरुद्ध विशाल विरोध प्रदर्शन
रिकोङ्ग्पिओ; दिनांक; 25-7-2015
आज किनौर जिला की सभी पंचायतों से 3000 से भी ज्यादा आए किसानों व बागवानों ने जिला मुख्यालय रिकोङ्ग्पिओ में उच्च न्यायालय के आदेशों का तुर्तफुरत पालन करते हुए, वन विभाग तथा पुलिस द्वारा प्रदेश के कई हिस्सों में, वन भूमि से कब्जा हटाने, घरों को गिराने व सेव के पेड़ काटे जाने की कार्यवाही के विरुद्ध बाजार में विशाल रोष प्रदर्शन किया गया। इस के बाद रामलीला मैदान में जनसभा का आयोजन किया गया तथा जिलाधीश के माध्यम से प्रदेश के मुख्य मंत्री को एक मांग पत्र सौंपा गया। जन सभा को हिमलोक जागृति मंच के श्री आर एस नेगी, हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह,  दिलीप गौड़े विदर्भ नेचर कंजरवेशण सोसाइटी नागपुर, मुनि लाल राष्ट्रीय वन जन श्रम जीवी यूनियन,  जिया लाल वन अधिकार संघर्ष समिति किनौर  इत्यादि ने संबोधित किया।

सभी बाहर से आए प्रतिनिधियों व पूरे किनौर से हजारों  किसानों का स्वागत करते हुए श्री जिया लाल अध्यक्ष वन अधिकार संघर्ष समिति किनौर ने इस वेदखली की निंदा की तथा मिल कर संघर्ष करने का आवाहन किया।  

विदर्भ नेचर कंजरवेशण सोसाइटी नागपुर के सचिव दिलीप गौड़े ने जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि वन अधिकार कानून संसद में पारित विशेष अधिनियम है जिसके तहत इस तरह की वेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी  है।

मांग पत्र को जन सभा में पेश करते हुए श्री आर एस नेगी ने सरकार से मांग की कि इस आदेश के स्थगन हेतु सरकार उच्च न्यायालय में पुनर्विलोकन याचिका तुरंत दायर करे। वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में अक्षरश: लागू करने व लंबित पड़े वन अधिकार के दावों का निपटारा किया जाए तथा भारत सरकार के 10 जून 2015 के आदेशों का पालन हो। हरे पेड़ काटने व मकानों को गिरने पर तुरंत रोक लगाई जाए। जिन किसानों के विरुद्ध कब्जे की FIR वन विभाग ने की  हैं वे सभी गैर कानूनी हैं जिनहे तुरंत विपिस किया जाए।
उन्हेराष्ट्रीय वन जन श्रम जीवी यूनियन के मुनि लाल ने इस करवाही की निंदा करते हिए कहा कि देश में यह पहला राज्य है जो सविधान की अवहेलना खुले आम हो रही है। इस प्रदेश के जंगलों का संरक्षण यहाँ के लोगों ने की है आज वन अधिकार कानून ने भी इसे यहाँ के लोगों को सौंपा है। इस कानून के अनुसार 13 दिसंबर 2005 से पहले के सभी हिमाचली किसान अपनी आजीविका के लिए किए वन भूमि पर कब्जे के वे हकदार है। हिमाचल सरकार की कार्यवाही असंवैधानिक  है।

रेली को संबोधित करते हुए हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह ने कहा कि पिछले दिनों में वन  विभाग ने अप्पर शिमला के रोहडू व अन्य स्थानों में नाजायज कब्जे में लगे सेव के बगीचों, जिस में सेव की फसल तैयार थी, को निर्ममता से काटा है। ऐसा ही अप्रेल में गोहर में भी किया गया था, जब एक बगीचे को काटा गया था, जिस में फूल लग रहे थे। कांगड़ा तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्सन काटे तथा कुछ घरों को तोड़ दिया गया। यह घृणित कार्य सरकार के ही विभाग ने हिमाचल उच्च न्यायालय के 6 अप्रैल 2015 के आदेश की आड़ में किया, जबकि इस से पहले कोर्ट के बहुत से आदेशों का सरकार पिछले कई सालों से पालन करने में निष्फल रही है या उसे लागू करने की नियत नहीं दर्शायी। ऐसे में इस आदेश पर वन विभाग की सक्रियता शक पैदा करती है।  हिमालय नीति अभियान इस कृत्य की घोर निंदा करती है और हरे सेव के पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के कर्मचारियों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध के निर्देशों तथा वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत कानूनी कार्यवाही की मांग करती है। हमने पिछले माह सरकार तथा लोगों को आगाह किया था कि यह उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला कानून समंत नहीं है, क्योंकि वनाधिकार कानून 2006 इस के आड़े आता है। नियामगिरी के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक वन भूमि से वेदखली की कार्यवाही नहीं की जा सकती है। सरकार को हमने इस पर पत्र भी लिखा था कि उच्च न्यायालय में इस पर दखल करने के लिए पुनर्विलोकन याचका दायर करे। परंतु सरकार की ओर से कोई पहल नहीं हुई। यह केस पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है, जिस पर उस समय की सरकार ने भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया। जबकि ज्यादा तर कब्जे 2002 के हैं जब उस समय कि सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे। आज तक सभी राजनीतिक पार्टियों की इस पर वेरुखी बनी रही और अब व्यान दे रहे हैं। असल में प्रदेश की कोई भी राजनीतिक पार्टी वन अधिकार कानून लागू करने में इछूक नहीं दिखती हैं।

अब 22 जुलाई के बाद मुख्य मंत्री व सभी राजनीतिक पार्टियों के ब्यान आना निरर्थक तथा नाटकवाजी ही लगती है, क्योंकि कुछ किसानों के पेड़ तो काट ही दिए गए हैं। इस में भी छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिरी जबकि बड़े किसानों तथा  प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की गई।

 
प्रदेश सरकार आज भी वनाधिकार कानून 2006 के अनुसार सोचने को तैयार नहीं है, इसलिए यह कहना मात्र शब्द ही है कि हम छोटे किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैं। हमारा कहना यह है कि किस कानून के तहत सरकार कब्जों को बहाल कर सकती है। आज ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। केवल वन अधकर कानून व भारत सरकार की 1990 की नोटिफिकेशन के तहत ही कब्जों का  नियमितीकरण हो सकता है। यह भी तथ्य है कि जब  से वन संरक्षण अधिनियम 1980 लागू हुआ तब से प्रदेश में नौतोड़ बांटना भी बंद हुआ है। यह कानून आज भी लागू है। इसलिए सरकारी ब्यान असत्य व तथ्यों से परे है। लीज पर भी वन भूमि खेती के लिए ऐसे में नहीं दी जा सकती। रास्ता एक ही है कि सरकार वन अधिकार कानून को लागू करें और 13 दिसम्बर 2005 तक के कब्जों का अधिकार पत्र किसानों को दिलवाया जाए।

आज जो किसान आंदोलन में हैं, हम उनका समर्थन करते हैं। किसानों से अनुरोध है कि वे आंदोलन तेज करे और पूरे प्रदेश के किसान एक साथ आएँ व राजनीतिक दवाव बनाए और सरकार को बाध्य करे कि वह यह कार्यवाही रोके और वन अधिकार कानून लागू करे।

सरकार से मांग है कि वह न्यायालय में यह पक्ष रखें कि वन अधिकार कानून 2006 के अमलिकरण कि प्रक्रिया चल रही है, ऐसे में कोई भी बेदखली अवैध है, क्योंकि उच्चतम न्यायलय का इस पर निर्देश है कि जब तक वन अधिकार कानून के तहत वन अधिकार के दावे निपटाए नहीं जाते तब तक बेदखली की कार्यवाही नहीं की जा सकती, जबकि प्रदेश में अभी वन अधिकार के समूहिक व निजी दावे पेश करने की प्रक्रिया अभी चल रही है। वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसानों, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी के 13 दिसंबर 2005 से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते, वल्कि उन्हें इस का अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा। बेशर्ते वे खुद काश्त करते हों या यह उस का रिहयशी मकान हो। प्रदेश के सभी गैर आदिवासी किसान इस कानून के तहत अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते हैं, क्योंकि वे यहाँ तीन पुश्तों से रह रहे हैं।
नाजायज कब्जा हटाने का यह आदेश एक तरफा किसानों के ही विरुद्ध लिया गया है जबकि जलविद्युत परियोजनाओं ने कई जगह वन भूमि पर सेंकड़ों बीघा  पर नाजायज कर रखा है, उस पर कोर्ट व सरकार द्वारा आज तक कोई भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई। इसी तरह के हजारों कब्जे निजी व सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों ने कर रखे हैं ऐसे में यह फ़ैसला किसान विरोधी ही है। अत: वन विभाग की यह कार्यवाही असंवैधानिक है। उच्च न्यायालय के उक्त फैसले पर उच्चतम न्यायालय में अपील करनी चाहिए तथा दोषी विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध भी कार्यवाही की मांग करनी चाहिए।
प्रस्ताव :
रेली में प्रस्ताव पारित किया गया कि पिछले कल सरकार ने जो आवेदन उच्च न्यायालय में उक्त कोर्ट के आदेशों में आंशिक संशोधन के लिए दायर किया है और कब्जे वाली भूमि को वन विभाग को सौपने का आग्रह किया है, का विरोध करते हैं। हमारी एक ही मांग है कि वन अधिकार कानून लागू किया जाए और 13 दिसंबर 2005 के पहले के सभी कब्जे जो खेती व आवासीय घर के लिए किए गए है के अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे जाएँ। इस आंदोलन को प्रदेश भर में लेजाने के लिए हिमालय नीति अभियान ने 28 जुलाई को मनाली, 29 को बिलासपुर, 30 को यूना अंब, 31 को धर्मशाल में प्रदर्शन करने का फ़ैसला लिया गया है।

गुमान सिंह संयोजक हिमालय नीति अभयान
आर एस नेगी संयोजक हिमलोक जागृति मंच
जिया लाल अध्यक्ष वन अधिकार संघर्ष समिति किनौर


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