राजस्थान : 21 गांवों के आदिवासियों की आजीविका व अस्तित्व का संघर्ष !

डूंगरपुर (राजस्थान) के हजारों आदिवासियों ने अपने शारीरिक श्रम व पूंजी लगाकर हजारों हेक्टेयर बंजर जमीन को खेती लायक बनाया। वैध दस्तावेज होने के बावजूद सरकार अपने लालच व स्वार्थ के चलते आदिवासियों को उनका हक प्रदान करने में आनाकानी कर रही है। आदिवासियों के परिश्रम व भूमि से जुड़ाव को रेखांकित करता भारत डोगरा का  सप्रेस से साभार महत्वपूर्ण आलेख;

यदि किसी परिवार की तीन पीढ़ियां जमीन को खेती योग्य बनाने के लिए खून-पसीना एक करें, बड़े-बड़े पत्थरों को हटाएं और गड्ढों को भरें और फिर भी उसके भूमि हक को न माना जाए, उस पर जुर्माना लगाया जाए, तरह-तरह से परेशान किया जाए या कुछ भूमि छोड़ने तक को कहा जाए तो उस परिवार में इस घोर अन्याय के प्रति असंतोष पनपेगा या नहीं? कुछ ऐसी ही स्थिति आज राजस्थान के डूंगरपुर के 21 गांवों (19 चकों व 2 राजस्व गांवों) की है। यहां लगभग 3200 परिवारों के अनुमानित 20000 लोग अपनी आजीविका व अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके इस संघर्ष को देश के न्यायप्रिय लोगों का व्यापक समर्थन मिले।

आजादी के पहले भारत के कुछ क्षेत्रों में ब्रिटिश राज था तो कुछ क्षेत्र में राजा-रजवाड़ों की मनमानी चलती थी तथा लोगों को बहुत अत्याचार सहना पड़ता था। सबको उम्मीद थी कि आजादी आने के बाद उन्हें न्याय मिलेगा, एवं गरिमामय आजीविका का अधिकार मिलेगा। पर आज हकीकत यह है कि जिन्हें डूंगरपुर के राज परिवार से जमीन के दस्तावेज मिल गए थे, उन्हें भी आज तक भूमि के पक्के हक व खातेदारी हक नहीं मिले हैं। इस वजह से उन्हें अनेक तरह के अनिष्चय के माहौल में रहना पड़ रहा है। जिसमें उन पर जुर्माने (पेनल्टी) भी लगते हैं और जमीन छीने जाने की धमकियां भी मिलती हैं। शामिल हैं।

वीरपुर गांव की बेटी कंकुबाई को तो स्वयं राजा लक्ष्मणसिंह ने जमीन दी थी, इसके बावजूद उन्हें आज तक पक्के हक नहीं मिले। सरकण कोपसा गांव के नत्थू भाई और उनकी वर्षा बाई इस बारे में चर्चा चलने पर घर में संभालकर रखा हुआ कपड़े पर लिखा गया दस्तावेज निकाल कर लाते हैं। इस दस्तावेज में डूंगरपुर के राजा ने अपने पटवारी के माध्यम से नत्थू सिंह के दादा जी को खेती के लिए जमीन दी थी। इस जमीन को खेती योग्य बनाने के लिए नत्थू के दादा   पिता, स्वयं नत्थू व वर्षा ने कड़ी मेहनत की। सरकार ने तो यहां कभी कोई विकास कार्य नहीं किए। अपनी मेहनत से इस परिवार की तीन पीढ़ियों ने कंुआ बनवाया, पत्थर हटाए, मेढ़ बनाई, गड्ढे भरे। तब कहीं जाकर इस भूमि में मक्का, उड़द, तुअर आदि फसलों का उत्पादन संभव हुआ।

यहां पर खेती के पूरक के रूप में पषुपालन भी जरूरी है। गाय, बैल और बकरी से ही परिवार का कार्य ठीक से चल जाता है। इसके लिए चारे की व्यवस्था भी जरूरी है। नत्थू के यहां देखा कि कितनी मेहनत से चारा एकत्र कर पेड़ों पर जमा कर रखा है। जो जमीन कृषि के लिए जोती जा रही है, उसके साथ चारे व पषुपालन के लिए उपयोग होने वाली जमीन भी नत्थू भाई जैसे परिवारों के लिए जरूरी है। यह आधार न रहे तो नत्थू भाई व वर्षा बाई के परिवार जैसे विभिन्न परिवारों की खाद्यसुरक्षा व रोजी-रोटी गंभीर संकट में पड़ जाएगी।

इसी तरह चंपा बाई का परिवार हो या गंगा बाई का या कचरा भाई का, इन सभी का यही कहना था कि इस जमीन के बिना तो उनके परिवार का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। अतः वह हर कीमत पर तीन या दो पीढ़ियों की मेहनत से खेती योग्य बनाई गई भूमि पर अपने अधिकार की रक्षा करेंगे। इन गांववासियों ने बताया कि कैसे आस-पड़ौस के परिवार मिलकर पहले एक किसान के खेत से पत्थर हटाते थे, फिर दूसरे किसान के खेत से बड़े पत्थर हटाते थे और इस तरह की कड़ी मेहनत के बाद ही इस जमीन पर फसल  लहलहा सकी।

इस तरह के 19 चकों व 2 राजस्व गांवों में समस्याग्रस्त व संघर्षरत लगभग 3200 परिवारों के संघर्ष में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है वागड मजदूर किसान संगठन (वामकिस) ने। इस संगठन ने पहले जंगल अधिकार, न्यूनतम मजदूरी, रोजगार गारंटी, सोषल ऑडिट आदि मुद्दों पर संघर्ष किए और कई सफलताएं प्राप्त कीं। हाल के समय में वामकिस ने सर्वाधिक ध्यान इन 21 चकों के भूमि संघर्ष पर केंद्रित किया है जिसे राजधानी/राजदानी भूमि का संघर्ष भी कहा जा रहा है क्योंकि इसी नाम से भूमि राजा के पुराने कागजों में दिखाई गई है। बाद में सरकारी कार्यवाही के बाद इसके 21 ‘सक’ बनाए गए (19 चक व 2 राजस्व गांव)।

इसमें से 90 प्रतिषत से अधिक भूमि पर आदिवासियों की खेती है और छुटपुट अन्य समुदायों की है। सक डंूगरपुर केे दलित समुदाय  के सबसेे वरिष्ठ सदस्य बानाखातू ने बताया कि हमारे पुरखों ने महाराज की बहुत सेवा की, बहुत त्याग किया, तब जाकर हमें यह जमीन मिली थी। इसे खेती योग्य बनाने में महिलाओं के चांदी के जेवर तक बिक गए। बानाखातू ने कहा- इतने त्याग से मिली जमीन को हम कभी नहीं छोड़ेंगे।

राजस्थान भूमि सुधार व भू-स्वामी एस्टेट अधिग्रहण अधिनियम 1963 के अंतर्गत राजा लक्ष्मण सिंह से डूंगरपुर के 21 स्थानों पर 17700 एकड़ भूमि प्राप्त की गई (2 राजस्व गांव व 19 चक)। इस भूमि के अधिग्रहण पर कोई कानूनी सवाल लंबित नहीं  है और यह कार्यवाही कानूनी तौर पर पूर्ण हुए वर्षों बीत चुके हैं। केवल एक मामूली सा मामला राजा को मिलने वाले मुआवजे का बचा है। इसके बारे में राजा के वंषज ने स्वयं वामकिस प्रतिनिधियों को बताया कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है और इसका किसानों को खातेदारी हक मिलने से कोई अवरोध नहीं है।

इस अन्याय को दूर करने में अब जरासी भी देर नहीं होनी चाहिए। शीघ्र से शीघ्र इन सभी हकदारों का ठीक से पता लगाकर उन्हें भूमि के खातेदारी हक दे देने चाहिए। लोगों ने लंबा इंतजार किया है। अतः न्याय का तकाजा है कि इनमें से कोई भी छूटना नहीं चाहिए।  यदि कोई परिवार इतने लंबे इंतजार के बाद भी छूट जाएगा तो बहुत बड़ा अन्याय होगा। सरकार को चाहिये कि शीघ्र से शीघ्र भूमि आवंटन करने के पष्चात् वह इस क्षेत्र में जल व नमी संरक्षण, मिट्टी संरक्षण, मेढ़बंदी, हरियाली बढ़ाने के कार्य, आर्गेनिक खेती के प्रसार व परंपरागत बीजों की रक्षा, अनाज बैंक की स्थापना आदि के कार्य बड़े स्तर पर करे जिससे कि पर्यावरण  व आजीविका  की रक्षा का संुदर मिलन यहां पर नजर आए।

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3 टिप्पणियाँ:

  1. इस सामन्तवादी व्यवस्था के जिम्मेदार भी अपने राजनेता हे अगर वो गरीबो और आदिवासियों की तरफ ऐसे ही अवसरवाद का फायदा लेते रहेंगे तो हम कैसे उबर पाएँगे। ये लोग आज भी इनके गुलाम हे और गरीब आदिवासी वही के वही

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  2. इस सामन्तवादी व्यवस्था के जिम्मेदार भी अपने राजनेता हे अगर वो गरीबो और आदिवासियों की तरफ ऐसे ही अवसरवाद का फायदा लेते रहेंगे तो हम कैसे उबर पाएँगे। ये लोग आज भी इनके गुलाम हे और गरीब आदिवासी वही के वही

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  3. इस सामन्तवादी व्यवस्था के जिम्मेदार भी अपने राजनेता हे अगर वो गरीबो और आदिवासियों की तरफ ऐसे ही अवसरवाद का फायदा लेते रहेंगे तो हम कैसे उबर पाएँगे। ये लोग आज भी इनके गुलाम हे और गरीब आदिवासी वही के वही

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