नरकंकालों पर खड़ा होता कनहर बांध

आदिवासी नेता अकलू चेरो की गवाही

सोनभद्र के कनहर में आंबेडकर जयन्‍ती मना रहे बांध विरोधी आदिवासियों पर गोली चलायी गयी जिसमें सुन्‍दरी गांव के अकलू चेरो को सीने में गोली लगी। वे बनारस के सर सुन्‍दरलाल चिकित्‍सालय में तब से भर्ती हैं जबकि उनके दो तीमारदारों को गिरफ्तार कर के मिर्जापुर जेल भेज दिया गया है। गोलीकांड के बारे में फैली तमाम अफ़वाहों और अधूरी सच्‍चाइयों के बीच सीधे अकलू के मुंह से उसी की भाषा में सुनें कि उस दिन आखिर हुआ क्‍या था। अकलू का पहला सार्वजनिक बयान जिसे हम जनपथ से साभार प्रकाशित कर रहे हैं
''... उस दिन हम लोग तीन साढ़े तीन सौ रहा होगा... महिला और पुरुष। पहले धरना में जुट के न हम लोग यहां आए थे। उसके बाद जब वहां आए तो कोई फोन के माध्‍यम से कह दिया। अब नाम नहीं बता पाएंगे... सब लगे हैं जासूसी में... उनको कमीशन मिल रहा है न भाई। तो कोई फोन के माध्‍यम से कह दिया उनको। अब गाड़ी आ के खड़ा हो गयी तुरंत पुलिस की... जहां बाउंड्री किया है। हम कहे देखो अब नहीं सपोर्ट कर पाओगे... गाड़ी आ गयी। पहिला गाड़ी आया, दूसरा आया, फिर तीसरा आया। तीन गाड़ी आया। इतना कहते हुए सारे लोग चले गए धरनास्‍थल से। जब आए हैं तो हम जो हैं मोर्चा पर रहे। हम सोचा कि मोर्चा पर नहीं रहेंगे तो कोई संभाल नहीं पाएगा। मोर्चा पर रहने के वजह से यह घटना मेरे साथ घटी। वहां से जब चले हैं, यहां आते तक पुलिस वगैरह भी, पीएसी के लोग भी भाई, कोई अभी लाइट्रिन-बाथरूम नहीं नाश्‍ता पानी नहीं... छह बजे क बाते रहा। तब तक से वहां रोकना शुरू... हम कहे कोई मत मानना, एकदम चलते रहना, हम हैं न! भाई बात होगा तो बात हम करेंगे... आप लोग सुनना, पास करना- हां, ठीक कह रहे हैं... ऐसे करना। तब से वहां से रोकने का समय ही नहीं मिला उन लोगों को। तब फिर पूछते हुए गाड़ी से उतर गए। फिर कुछ लोग गाड़ी स्‍टार्ट किए, बीच में आ गए। हम कहे अगर बीच में गाड़ी अगर हॉर्न मारेगा तो तुम लोग चक्‍का जाम करे रहना, रुकना नहीं, जाने नहीं देना। ऐसा ही किया लोग। आगे-आगे हम और महिला-पुरुष चलते रहे।
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किस तरह हर नियम की अनदेखी करने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार आदिवासियों के जीवन के साथ खेल रही है? दो सालों बाद होने वाले चुनावों के लिए बांध को रिपोर्ट कार्ड में शामिल करने के लिए समाजवादी पार्टी क्या नीति अपना रही है और दुद्धी, सोनभद्र के अस्पतालों में घायलों का आंखों-देखा हाल कैसे केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं, झारखंड और छत्तीसगढ़ की भी सरकारें  भी आदिवासियों की समस्याओं को मुआवज़े की कीमत पर तौल रही हैं? क्या होगा कनहर बांध बनने से और राज्यों के बीच किस तरह तनाव पसरा हुआ है. आदि महत्वपूर्ण सवालों पर सिद्धान्त मोहन  का आलेख जिसे हम twocircles से साभार प्रकाशित कर रहे हैं ।

उत्तर प्रदेश का ऊर्जांचल कहे जाने वाले राज्य सोनभद्र से जब आप लम्बी दूरी का सफ़र तय करके दुद्धी गाँव पहुंचते हैं, तो दुद्धी से ही एक रास्ता फूटता है जो छत्तीसगढ़ और झारखंड के गांवों की ओर जाता है. इस रास्ते पर मुड़ते ही लगभग हरेक किलोमीटर पर ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ की तख्तियां दिखाई देती हैं. लगभग 10 किलोमीटर के बाद पक्की सड़क कच्चे रास्ते में बदल जाती है. इस सड़क से उतरते रेत पर बने रास्तों से एक नदी से सामना होता है, इस नदी का नाम है ‘कनहर’. कनहर सोन की सहायक नदी है. उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जिले सोनभद्र का क्षेत्रफल 6788 वर्ग किलोमीटर है, जिसके आधे से भी ज़्यादा हिस्सा घने जंगलों से घिरा हुआ है. यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है. इन आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 व 20 ने उनके मूलभूत वनाधिकारों से वंचित रखा है. छत्तीसगढ़ से बह चली आ रही नदी कनहर की एक सहायक नदी ‘पांगन’ के किनारे एक बड़ा लेकिन उजड़ा-सा शामियाना लगा हुआ है. हम नदी के बीचों-बीच मोटरसाइकिल चलाते हुए उस पार पहुँचते हैं. इस शामियाने में कई पुरुष-स्त्री, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, प्रधान-पूर्वप्रधान, छोटी जात-बड़ी जात सब बैठे हुए हैं. ये यहां आज से नहीं 23 दिसम्बर 2014 से बैठे हुए हैं. गिरती हुई शाम के बीच एक शराब के नशे में झूमता हुआ आदिवासी अपने बदन को झटका देते हुए पास से चिल्लाता गुज़रता है, ‘कुछ नहीं होगा. बांध बनेगा. पैसा भी नहीं मिलेगा. ज़मीन भी नहीं मिलेगी. सब लोग यहीं धरना देते-देते डूब जाओगे....कुछ नहीं होगा.’
कनहर नदी, जिस पर बाँध का निर्माण हो रहा है
कनहर परियोजना उत्तर प्रदेश की एन.डी. तिवारी सरकार द्वारा 1976 में पास की गयी परियोजना है. कई सालों से बंद पड़ी इस परियोजना पर 2014 के आखिरी दिनों में अचानक कार्य शुरू कर दिया गया. उसके बाद आसपास के गाँवों में रह रहे आदिवासी इस बाँध के बनने पर आपत्ति जताने कार्यस्थल पर पहुंचे तो उन्हें खदेड़ दिया गया. उसके बाद से 23 दिसम्बर से लेकर आजतक गांववाले इस परियोजना के विरोध में बैठे हुए हैं. इस परियोजना पर कई दिनों से कार्य बंद रहा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 2010 में कार्य को फ़िर से शुरू करने के लिए नई आधारशिला राखी, लेकिन काम नहीं शुरू हो सका. उसके बाद 2012 में शिवपाल सिंह यादव ने भी इस कार्ययोजना को शुरू करने के लिए आधारशिला रखी, लेकिन फ़िर भी काम शुरू नहीं किया जा सका.
इस मामले को पूरी तरह से समझने के लिए मामले के इतिहास को समझना आवश्यक है. 1976 में नारायण दत्त तिवारी द्वारा बाँध के कार्य का शिलान्यास किया गया था. उस दौरान बाँध के ‘जलमग्न’ क्षेत्र के भीतर अपनी ज़मीन खोने वाले किसानों से वादा किया गया कि सभी किसानों को 5-5 एकड़ कृषियोग्य भूमि और सरकारी नौकरी दी जाएगी.
धरने पर बैठे आदिवासी
परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का कार्य साल 1978-1982 तक किया गया. असल धांधली यहां से शुरू होती है. पांच किसानों को ही मुआवजे का पूरा भुगतान किया गया. प्रतिकर का भी भुगतान सिर्फ़ 80 प्रतिशत किसानों को किया गया. इसे बाकी किसानों पर लागू नहीं किया गया. इस बाँध के बनने से झारखंड और छत्तीसगढ़ के भी गाँव बाँध के डूब या जलमग्न क्षेत्र में आएंगे. अब तीन राज्यों के बीच असहमति का पेंच फँसा तो साल 1989 से इस बाँध का कार्य बंद कर दिया गया. उसके बाद से पिछले 25 सालों के भीतर इस परियोजना पर कोई कार्य नहीं हुआ.
इस सबके बाद बारी आती है भूमि अर्जन अधिनियम 2013 की. इसे यदि मोटी-मोटी भाषा में समझें तो यह अधिनियम कहता है कि किसी परियोजना के शुरू होने के पांच सालों के भीतर तक यदि भौतिक रूप से भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया है, तो अधिग्रहण वहीं समाप्त हो जाता है. इसके बाद भी यदि सरकार उस परियोजना को फ़िर से शुरू करना चाहती है तो उसे फ़िर से भूमि का अधिग्रहण करना होगा. फ़िर से पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का आंकलन करते हुए आवंटन और मुआवज़े का पैमाना बनाना होगा. यानी पुराना अधिग्रहण किसी भी सूरत में मान्य नहीं होगा. इसके साथ इस अधिनियम का यह भी पक्ष जानने योग्य है कि किसान परिवार की तीन पीढ़ियों को पृथक समझकर मुआवजे व भूमि का आवंटन किया जाए ताकि भविष्य में उनके गुजर-बसर में कोई भी रुकावट न आए. इसके साथ यह भी कि परियोजना कमांड क्षेत्र यानी मुख्य क्षेत्र में भी विस्थापित किसान को ढाई एकड़ का भू-भाग दिया जाए.

बाँध का निर्माण कार्य
2013 में आए इस अधिनियम की अनदेखी करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने बाँध के निर्माण का कार्य फ़िर से शुरू करा दिया. 5 दिसम्बर 2014 को पूरे पुलिसिया अमले के साथ बाँध का निर्माण शुरू किया गया और ऐसा शुरू किया गया कि निर्माण क्षेत्र से 1.5 किलोमीटर की दूरी तक कोई भी व्यवधान न पैदा हो. धरने के पहले ही दिन एसडीएम अभय कुमार, सीओ देवेश कुमार शर्मा और कोतवाल जीतेंद्र सिंह धरना स्थल अपर धरना कुचलने की हैसियत से पहुंचे. गांववाले बताते हैं कि शुरूआती मनुहार के बाद जब आदिवासी अपनी मांगों से टस से मस न हुए तो पुलिसवालों ने जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर गाली देना और भगाना शुरू कर दिया. इस पर गाँव वाले उग्र होने लगे तो पुलिस पीछे भागने लगी. और भागने में कुच्छ सिपाही चोटिल हो गए. अब इसके लिए पुलिस ने उलट गांववालों पर ही मुकदमा दर्ज कर दिया कि गाँव के नागरिकों के हमले के चलते पुलिसकर्मी घायल हो गए.
जाहिरा तौर पर पुलिस अधिकारी इन आरोपों को नकार देते हैं. इसके बाद गांववालों की एक आमसभा के बीच पीएसी की एक टुकड़ी आ गयी और गाँववालों को मारना-पीटना शुरू कर दिया. मुख्य कार्यस्थल पर धरना दे रहे लोगों को खदेड़ दिया गया और कहा गया कि धरना करना है तो अपने गाँवों में जाकर करो.
इस बाँध से उपजने वाली दिक्कतों का सामना करने के लिए ग्राम स्वराज समिति से जुड़े एक्टिविस्ट महेशानन्द और विश्वनाथ खरवार के संयुक्त प्रयास के तहत ‘कनहर बचाओ आंदोलन’ की शुरुआत हुई. विश्वनाथ खरवार कहते हैं, ‘हमारे आदिवासी भाई-बंधु चाहते हैं कि गाँव बने विकास को. मुआवज़ा मिले, ज़मीन मिले. हम सब भी यही चाहते हैं कि गाँव का विकास हो. लेकिन प्रश्न है कि विकास की परिभाषा क्या होनी चाहिए? इन कीमतों पर विकास होगा तो वह कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.’

बाँध से प्रभावित होने वाले गाँवों के सभी बाशिंदों में एकता है
विश्वनाथ खरवार आगे कहते हैं, ‘मेरी राय है कि बाँध नहीं बनना चाहिए. बाँध बन जाएगा. बहुत संघर्ष होगा तो घर, ज़मीन और मुआवजा भी मिल जाएगा. लेकिन बनी-बनाई पूरी सभ्यता और प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा.’ हम इन्सान तो जगह बदल भी लेंगे लेकिन जर-जंगल-ज़मीन-जानवर कहां जाएंगे? और क्या गारंटी है कि बाँध बनने के बाद हमारा संघर्ष कम हो जाएगा? कल को बांध की ऊँचाई बढ़ाने की बात उठेगी तो हमें फ़िर से पीछे भगाया जाएगा.’
दोपहिए पर हमने गाँव-गाँव होते हुए छात्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर प्रदेश के उन गाँवों का मुआयना किया, जो इस बांध के पूरा होने के बाद पूरी तरह से डूब जाएंगे. एक व्यापक भूभाग खतरे की घंटी के साए में है. झारखंड के झारा गाँव के उपसरपंच रामेश्वर प्रसाद यादव कहते हैं, ‘अब इस कदर हमारी मांगों की अनदेखी हो रही है कि आदिवासी सोचने लगे हैं कि बिना किसी लाभ के ही उनके घर-खलिहान डूब जाएंगे.’
आदिवासियों की यह समस्याएँ अब राजनीतिक रोटी सेंकने के काम में आ रही हैं. भाजपा बांध के पास होते वक्त सत्ता में रही कांग्रेस को जिम्मेदार बता रही है, जबकि कांग्रेस छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को दोष दे रही है. पास में ही सटे छत्तीसगढ़ के गाँव के रामेन्द्र खरवार कहते हैं, ‘भाजपा के लोग हम लोगों को कहते हैं कि केवल पांच गाँव प्रभावित होंगे लेकिन कांग्रेस दावा करती है कि 27 गाँव बाँध के डूब क्षेत्र में आएंगे. अब हमें सही जानकारी भी नहीं मिल रही कि लड़ाई को सही दिशा दी जाए.’ भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और छत्तीसगढ़ के पूर्व सिंचाई मंत्री रामविचार नेताम कनहर सिंचाई परियोजना के निर्माण का पूरा ठीकरा अविभाजित मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पूर्व मंत्री रामचंद्र सिंह पर फोड़ते हैं. उनके अनुसार उन्होंने रामचंद्र सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार से बाँध निर्माण के बाबत कोई भी समझौता करने से मना किया था.

दांव पर लगी प्राकृतिक संपदा
इस विषय में राजनीतिक कैनन को और विस्तार देते हुए बात करें तो मालूम होता है कि समाजवादी पार्टी के लिए यह बांध हर हाल में महत्वपूर्ण है. उत्तर प्रदेश में दो सालों के बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. अखिलेश सरकार को जल्द ही अपना रिपोर्ट कार्ड सामने रखना होगा, उसके लिए यह बांध के एक बड़े सिक्के की तरह साबित होगा. दुद्धी विधानसभा क्षेत्र की विधायक रूबी प्रसाद भी इस खेल में अपनी चाल चल रही हैं. उन्होंने जून 2014 में गाँव में एक जनसभा में दावा किया था कि यहां के ग्रामीणों को पूरा अधिकार दिलाएंगे, उसके बाद ही बांध के निर्माण का कार्य पूरा होगा. लेकिन बिना अधिकार लिए-दिए कार्य शुरू हो गया. दिसम्बर में धरना शुरू होने के बाद वे फ़िर से आईं. जिन ग्रामीणों के अधिकारों के लिए वे मंच से बात कर रही थीं, उन्हीं से कहने लगीं कि आप सब बांध निर्माण में सहयोग कीजिए, धरना-प्रदर्शन से कुछ हासिल नहीं होगा.

बांध की शक्ल-ओ-सूरत पर नज़र डालें तो इन आदिवासियों का खौफ़ और भी ज़्यादा साफ़ हो जाता है. केन्द्रीय जल आयोग द्वारा सिंचाई की दृष्टि से पारित किए गए किस बांध की लम्बाई तीन किलोमीटर से भी ज़्यादा है. इसकी प्रारंभिक ऊंचाई 39.9 मीटर है, यदि इसे पास में स्थित रिहंद से भी जोड़ दिया गया तो ऊँचाई बढ़कर 52 मीटर से भी ऊपर जा सकती है. इस परियोजना के सही डूब क्षेत्र का आंकलन आजतक नहीं हुआ है. सरकारी मंसूबों का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि तीन बार हुए सरकारी सर्वे में आए परिणाम 2181, 2925 और 4143.5 हेक्टेयर हैं. यानी तीन बार हुए सर्वें में भूभाग के तीन ऐसे आंकड़े मिले हैं, जो बाँध बनने के बाद डूब जाएंगे. लगभग 27 करोड़ की अनुमानित धनराशि से शुरू हुई परियोजना की लागत अब 2250 करोड़ के ऊपर पहुंच गयी है.

अब पिछले चार महीनों में आदिवासियों के खिलाफ़ फर्जी एफआईआर फ़ाइल करने और गिरफ़्तार करने की घटनाएँ बेहद आम हो गयी हैं. यदि ज़मीनी हकीकत का रुख करें तो उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के लगभग 80 गाँव इस बांध के बनने के बाद डूब जाएंगे. इन 80 गाँवों के दस हज़ार से भी ज़्यादा परिवारों को विस्थापन का सामना करना होगा. लेकिन सरकारी सर्वे में कुल प्रभावित परिवारों की संख्या महज 1810 बतायी गयी है. आदिवासी कहते हैं कि सरकार ने दोबारा सही तरीके से सर्वे करने की कोई जहमत ही नहीं उठायी. उनकी मांग है कि फ़िर से सर्वे कराया जाए, नए तरीके से अधिग्रहण किया जाए और पुराने मुआवज़े के साथ-साथ भूमि के वर्तमान मूल्य को ध्यान में रखते हुए मुआवज़े का आवंटन किया जाए.
जो भी अधिकारी निर्माण कार्य देख रहे हैं, उनसे फ़ोन पर संपर्क करने पर वे या तो किस्म-किस्म के बहाने बताने लगे या ग्रामीणों पर दोष मढ़ने लगे. एक अधिकारी ने कहा कि ‘आईये, आराम से मिल-बैठकर बात करते हैं.’

विश्वनाथ खरवार
मौजूदा तारीख में ‘कनहर को बहने दो, हमको जिंदा रहने दो’ और ‘जंगल हमारा-आप का, नहीं किसी के बाप का’ जैसे नारों से कनहर के आस-पास बसे इलाके गूँज रहे हैं. दुद्धी से कनहर की ओर जाते रास्तों पर भी ये नारे लिखे मिल रहे हैं. जब आदिवासी जब अपने नुकसानों की गिनती करना शुरू करते हैं, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला सच है. सुंदरी गाँव के रामजीत गुप्ता कहते हैं कि उनकी 15 बीघा की जमीन में 13 बीघा का मुआवजा पुराने दर से मिला और बचा हुआ 2 बीघा अधिग्रहित कर लिया गया. रामजीत कहते हैं कि सरकारी अफसरों के लिए शादी-शुदा आदमी ही परिवारवाला है, गैर-शादीशुदा का कोई परिवार नहीं है. वह उनकी पीढ़ियों को मुआवजा के हकदारों में नहीं गिनना चाह रही है. ग्रामीण आरोप लगाते हैं कि मुआवजा आवंटन में धांधली हुई है. उनके अनुसार, जिस शादीशुदा के पास एक बिस्वा भी ज़मीन नहीं थी, उन्हें 50 लाख का मुआवजा दिया गया और 50 बीघा वाले गैर-शादीशुदा लोगों को 7 लाख का मुआवजा दिया गया.

पास के ही भीसुर गाँव के शिवप्रसाद खरवार कहते हैं, ‘हमारी संस्कृति और विरासत लुप्त होने जा रही है. मुझे खुद 75 बीघे का नुकसान हो रहा है. हम लोगों की जन्मभूमि पर हमारी ही ग्रामपंचायत को बाँट कर कार्य किया जा रहा है, ऐसे नागरिकों के बीच वैमनस्य फैलेगा.’ लोग कहते हैं कि ज़मीन की नापजोख में भी भयानक धांधली हुई है. यदि नापजोख में किसी भी व्यक्ति की जमीन में 4-5 फुट की ऊँचाई या 15-20 फुट की पहाड़ी आ जा रही है तो अधिकारियों ने उसे नहीं गिना. अधिकारियों की दलील है कि वह हिस्सा नहीं डूबेगा.
यह विकास का नया पैमाना है जहां कुछ भी किसी भी तरह अंक लिया जाता है. सोनभद्र बहुत दिनों से पूंजीपतियों और ऊर्जा के भूखे लोगों का शिकार इलाका रहा है. यहां की हवा भी ख़राब हो चुकी है और पानी भी. हवा में जलते हुए कोलतार की महक हमेशा मौजूद रहती है. आदिवासी बताते हैं कि अखबार वाले अधिकारियों से मिलने के बाद खबर नहीं छापते हैं. इसकी पूरी कहानी इक्का-दुक्का जगहों पर ही मौजूद है. लेकिन इस कहानी का भविष्य क्या होगा, इससे ही पता चल जाता है कि वहां आदिवासी चार दिनों से पुलिस की गोलियों और आंसू गैस के गोलों का सामना कर रहे हैं. लोकतंत्र को ऐसे किसी बाँध की ज़रूरत नहीं है जिससे अमूल्य जंगल और अमूल्य सभ्यता का नुकसान होता हो. सुन्दरी क्षेत्र के जंगल अपनी विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं, लेकिन ज़ाहिर है कि बांध के निर्माण के बाद ऐसी कोई भी विविधता नहीं बचेगी.साथ मौजूद जावेद बताते हैं कि बरसात के दिनों में झारखंड, छत्तीसगढ़ के जंगलों से तरह-तरह के जानवर आते हैं. पानी की तेज़ी इतनी होती है कि जिस नदी में आप गाड़ी चलाते हुए इधर आए हैं, उसके किनारे खड़े होने पर भी बह जाने का ख़तरा होता है


जब समाजवादी पार्टी ने जनता परिवार में विलय स्वीकार कर कमान खुद के हाथ में ले ली, तो वे यह भूल गए कि उन्हें अपने उन एजेंडों पर टिके रहना है जिनकी बिना पर वे किसानों, दलितों और आदिवासियों के करीब हैं. विकास की परिभाषा ने उन सभी एजेंडों को मटियामेट कर दिया और विकास की दौड़ में उत्तर प्रदेश की सपा सरकार द्वारा उठाये गए कदम गुजरात या मध्य प्रदेश की सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों से किसी हाल में भिन्न नहीं हैं. कनहर नदी से जुड़ी हुई कनहर सिंचाई परियोजना के तहत बाँध निर्माण की सचाई आप सभी जान चुके हैं. अब ज़रूरी यह है कि मौजूदा हालातों के साथ-साथ मामले के असल प्रशासनिक रवैया भी जाना जाए और दर्ज किया जाए.

बाँध के डूब क्षेत्र में आने वाले गाँवों में रहने वाले आदिवासियों ने 23 दिसम्बर 2014 से अपनी मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन धरना देना शुरू किया. अब तक जो हुआ वह ऊपर के लिंक में दर्ज़ है. उसके बाद बीते 14 अप्रैल यानी अम्बेडकर जयन्ती के दिन गांववालों ने प्रदर्शन स्थल से लेकर कार्यस्थल तक एक जुलूस निकाला. इस जुलूस में गाँव के लगभग 150-200 लोग शामिल थे. बाँध के निर्माण का कार्य बिना किसी बाधा के चलता रहे, इसके लिए पीएसी की एक टुकड़ी चौबीस घण्टे कार्यस्थल के आसपास मौजूद रहती है. हालांकि यह तथ्य भी दर्ज कर देना आवश्यक है कि निर्माण का कार्य चौबीस घण्टे नहीं होता है. खुद जिला मजिस्ट्रेट की बाद को सच मानें तो सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक काम बंद रहता है. बहरहाल, आधिकारिक तौर पर बात करें तो अम्बेडकर जयंती के दिन आदिवासी भोर में पांच बजे कार्य बंद कराने की नीयत से निर्माण-स्थल पर पहुंचे. मार्च के दौरान पुलिस और गाँव वालों में एक झड़प हुई. इस दौरान सुन्दरी गाँव के एक व्यक्ति अकलू चेरो ने पुलिस अधिकारी कपिल यादव के आदेश की अवमानना की. इस अवमानना का रिज़ल्ट यह आया कि अकलू चेरो और कोतवाल कपिल यादव के बीच बहस तेज़ हो गयी. बकौल एसपी सोनभद्र शिवशंकर यादव, अकलू चेरो ने कपिल यादव पर लकड़ी के पटरे से वार कर दिया. इसके साथ अकलू के भाई रमेशा ने भी कपिल यादव के बाएं हाथ पर कुल्हाड़ी से भी वार किया. इसके बाद कपिल यादव ने अपनी ‘आत्मरक्षा’ में एक-दो राउंड गोलियां चलाईं, जो सीधे अकलू चेरो को सीने को आर-पार कर गयी. एसपी यादव बताते हैं, ‘अकलू को अस्पताल पहुँचाने का इन्तिजाम पुलिस ने ही किया, जिसके कारण सही समय पर इलाज हो सका और उसकी जान बचाई जा सकी.’
मौके पर मौजूद अधिकारी नाम न छापने के शर्त पर बताते हैं कि इस समय जो भी पुलिस दल की मौजूदगी है, भविष्य में वह कई गुना बढ़ाए जाने की योजना है. छः और जिलों से मजिस्ट्रेट लगाए जा रहे हैं. लेकिन ध्यान देने की बात है कि डीएम संजय कुमार और एसपी शिवशंकर यादव इस बात से साफ़ इनकार कर देते हैं. 14 अप्रैल की घटना के बारे में एसपी शिवशंकर यादव बताते हैं, ‘घटना के एक दिन पहले यानी 13 अप्रैल को रात दस बजे इन केसों में मुख्य अभियुक्त गंभीरा और शिवप्रसाद ने लोगों के साथ मीटिंग की और तय किया कि रात में काम बंद करा दिया जाए. रात में सफल न होने पर अगले दिन सुबह पांच बजे काम बंद कराने पर विचार हुआ. इसके बाद भोर में दल के साथ पहुंचे और कपिल देव यादव की रोकाटाकी के बाद झड़प हुई जिसमें कपिल देव यादव ने आत्मरक्षा में गोली चल गयी.’ एसपी शिवशंकर यादव दावा करते हैं, ‘हमारे पास पक्की खबर थी. गांववालों ने पूरी प्लानिंग कर रखी थी कि एक दो पुलिसवालों को उकसाने पर वे गोली चला देंगे, फ़िर खुद ही मामला बन जाएगा.’ इन दावों पर कोई ध्यान न दें तो यहां दो बयानों के बीच विरोधाभास पैदा होता है, जो कई लूपहोल्स खोल देता है. डीएम संजय कुमार ने जानकारी दी कि कार्यस्थल पर अन्धेरा ढलने और सूरज उगने के बीच कोई कार्य नहीं होता है. ऐसे में यह दावा ही झूठा साबित होने लगता है कि आदिवासियों ने रात में या भोर में पांच बजे काम बंद कराने का कोई प्रयास किया हो.

सोनभद्र जिले के एसपी शिवशंकर यादव (बाएं) और जिलाधिकारी संजय कुमार
इस घटना के बारे में जब गाँव के लोगों और खुद घायल अकलू चेरो से बात हुई तो मामले का एक अलग ही पहलू सामने आता है. गांव वाले बताते हैं कि अम्बेडकर जयंती के दिन आदिवासियों के एक समूह ने कार्यस्थल तक एक रैली निकाली. पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के सभी लोगों पर डंडे बरसाना शुरू कर दिया. इन डंडे खाने वाले लोगों में महिलाएं और बुजुर्ग भी थे. उस वक्त आदिवासियों के बीच मुखर आवाज़ के रूप में मौजूद अकलू चेरो ने मौके पर मौजूद अधिकारी कपिल यादव से कहा कि महिलाओं को न मारा जाए. अकलू बताते हैं कि इसी बात पर कपिल यादव ने गालीगलौज शुरू कर दिया और बहस शान्त होने के बजाय और बिगड़ गयी. इसी में अधिक से अधिक 5-6 फीट की दूरी से कपिल यादव ने अकलू चेरो को सीने पर गोली मार दी. जो सीने को बेधते हुए पीठ से बाहर निकल गयी. इसके बाद कोतवाल कपिल यादव ने अपनी ही सर्विस रिवॉल्वर से अपने ही हाथ पर गोली मार ली, जिसके बारे में पुलिस कह रही है कि यह चोट अकलू के भाई रमेशा के कुल्हाड़ी के वार से लगी है. गोली चलने के बाद भगदड़ शुरू हुआ और प्रदर्शनकारी भी अफ़रा-तफ़री में फंस गए. कोतवाल कपिल यादव भी अपने साथियों के साथ भाग खड़े हुए.

अकलू चेरो और उनके शरीर पर मौजूद गोली के घाव
पुलिस अकलू के घायल शरीर को को कहीं भी ले जाने नहीं दे रही थी. इसके बाद कार्यस्थल पर बेहोश अकलू के खून से लथपथ शरीर को रखकर नारेबाजी करने लगे. इसके बाद गाँव के दो पुरुषों लक्ष्मण व अशर्फ़ी ने किसी तरह से अकलू को बनारस पहुंचाया, जहां अकलू चेरो अभी सरसुन्दर लाल चिकित्सालय में भर्ती हैं. अकलू बताते हैं कि अस्पताल में होश सम्हालने के बाद से लक्ष्मण व अशर्फ़ी का कोई पता नहीं है. उनका मोबाइल लगातार ऑफ़ बता रहा है. इसके बारे में कई बार बल देकर पूछने पर एसपी शिवशंकर यादव ने बताया कि लक्ष्मण व अशर्फ़ी इस समय मिर्जापुर जेल में बंद हैं. उन पर बलवा करने, सरकारी काम में बाधा पहुंचाने और जानलेवा हमला करने की धाराएं लगाई गयी हैं. अभी अकलू चेरो बनारस में लगभग पूरी तरह से अकेले हैं, वे कहते हैं कि एक-दो दिन पर पुलिस वाले आते हैं और राउंड लगाकर चले जाते हैं. अकलू बताते हैं कि उन्हें डर लग रहा है कि अस्पताल से छुट्टी मिलते ही पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर ले जाए.

मौके पर मौजूद आदिवासी बताते हैं कि पुलिस ने लाठीचार्ज या फायरिंग के पहले किसी भी किस्म की चेतावनी नहीं दी. इसके बारे में डीएम संजय कुमार से पूछने पर वे कहते हैं, ‘नहीं ऐसा एकदम नहीं हुआ. सारे प्रोटोकॉल फॉलो किये गए.’ दूसरी बातों के बारे में पूछने पर एसपी शिवशंकर यादव ने पूछा, ‘क्या आप लोगों से गाँववालों ने यह भी कहा कि पुलिस ने छः लोगों को मारकर दफ़ना दिया है?’ इस पर हमने कहा कि, ‘ऐसी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है, लेकिन क्या आप इस पर कुछ बता सकते हैं..’ इस पर एसपी शिवशंकर यादव ने कोई जवाब नहीं दिया. बाँध को लेकर लोगों के रवैये के बारे में पूछने पर डीएम संजय कुमार ने कहा कि लोग बाँध के लिए राजी है, लेकिन बाहर के लोग अपने लाभ के लिए आदिवासियों को भड़का रहे हैं. पूछने पर कि किन इलाकों के लोग बाँध के पक्ष में हैं, तो डीएम संजय कुमार ने कहा कि दुद्धी शहर के लोगों को सहमति है. इस बात से अंदाज़ लग जाता है कि जिन लोगों के घर डूब रहे हैं, वे लोग किसी भी हाल में बाँध निर्माण से सहमत नहीं है.
प्रशासनिक अमला लोगों उन लोगों की सहमति को अपना पक्ष मान रहा है, जिनका कुछ भी इस बांध के बनने से नहीं डूब रहा है. जिनके घर बाँध से बहुत दूरी पर स्थित हैं.

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा दिया गया स्टे ऑर्डर, जिसमें साफ़ लिखा है कि बिना किसी क्लियरेंस की स्थिति में तत्काल काम बंद किया जाए
बातचीत में डीएम और एसपी ने हमसे कहा कि उत्तर प्रदेश के 11, झारखंड और छत्तीसगढ़ के 4-4 गाँवों को मिलाने पर बाँध निर्माण से कुल 19 गाँव डूबेंगे. हमने पूछा कि उत्तर प्रदेश के 11 गाँवों के नाम बता दीजिए तो उन्होंने कहा कि अभी याद नहीं है. ज़ाहिरा तौर पर यह मालूम है कि कुल 80 गाँव इस बाँध के निर्माण के बाद डूब जाएंगे. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल(एनजीटी) के स्टे ऑर्डर के बारे में पूछने पर डीएम संजय कुमार ने कहा कि ‘दरअसल ट्रिब्यूनल द्वारा दिया गया स्टे ऑर्डर सशर्त है, यदि हम शर्त पूरी करते हैं तो हम निर्माण कर सकते हैं.’ लेकिन एनजीटी के ऑर्डर में साफ़-साफ़ लिखा है कि बिना वन और पर्यावरणीय अनुमति के सरकार को तत्काल निर्माण कार्य बंद करना होगा और एक भी पेड़ को गिरने से रोकना होगा [देखें ऑर्डर की प्रति]. इसके बाद भी उत्तर प्रदेश सरकार की बदहवासी बंद नहीं होती है. एनजीटी में सुनवाई के बाद 24 मार्च 2015 को फ़ैसला सुरक्षित कर लिया गया, जिसे अप्रैल के आखिरी दिनों में आना है. लेकिन हर आदेश के खिलाफ़ जाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने निर्माण-कार्य जारी रखा. पूछने पर डीएम संजय कुमार कहते हैं कि अदालत का आदेश आने तक काम चलता रहेगा.

धरने के वक्त लोगों से हुई बातचीत में यह बात सामने आई थी कि वे दिहाड़ी मजदूर की तरह नहीं काम करना चाहते हैं. 1976 में इस परियोजना के उद्घाटित होने के दौरान ही एन.डी. तिवारी ने कहा था कि यहां के सभी विस्थापितों को सरकारी नौकरी दी जाएगी, आदिवासी नौकरी चाहते हैं इसलिए वे बांध पर मजदूरी नहीं कर रहे. मौजूदा तथ्य के उलट डीएम संजय कुमार कहते हैं कि बांध के निर्माण में स्किल्ड वर्कर बाहर से आते हैं, लेकिन निर्माण कार्य में लगा हुआ हरेक नॉन-स्किल्ड सुन्दरी और भीसुर गाँव का है. एसपी शिवशंकर यादव कहते हैं, ‘इस गाँव के मजदूर चाहे चार घण्टे काम करें, छः घण्टे करें या पूरा दिन....उन्हें हम हर हाल में 180 रूपए प्रतिदिन का मेहनताना देते हैं.’ हमने एक-दो बार पूछा कि क्या आप सच में 180 रूपए प्रतिदिन मेहनताना देते हैं? तो उन्होंने कहा कि हां. यहां यह बात जानने की है कि उत्तर प्रदेश में नॉन-स्किल्ड वर्कर के लिए प्रतिदिन का न्यूनतम मेहनताना 200 रूपए है. ऐसे में यहां दो बातें साफ़ हो जाती हैं, एक, गांव के बाशिंदों के बांध-निर्माण में संलिप्त होने की खबर संदिग्ध है क्योंकि गांव के लोग लाठियां खा रहे हैं और खुद इस बात से नकार रहे हैं; और दो, बांध निर्माण के लिए मजदूरों को दिया जाने वाला मेहनताना आधिकारिक न्यूनतम दर से भी कम है.
बांध निर्माण स्थल पर लगी पुलिस
14 अप्रैल के इस घटनाक्रम के बाद बांध निर्माण स्थल पर पुलिस-पीएसी की संख्या बढ़ा दी गयी. आदिवासियों का प्रदर्शन भी जारी रहा, जो अहिंसक था. 18 अप्रैल की सुबह पांच-छः बजे के बीच पुलिस ने वहां मौजूद लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया. यहां यह बात ध्यान देने की है कि बिना किसी पूर्व चेतावनी और आदेश के यह लाठीचार्ज दुद्धी जिले के एसडीएम के आदेश पर किया गया. इस लाठीचार्ज में जब 18-19 आदिवासी घायल हो गए तो बाढ़ के डूब क्षेत्र में मौजूद आसपास के गाँवों जैसे भीसुर और कोरची के ग्रामीण भारी संख्या में घटनास्थल पर जमा होने लगे. इसे देखते हुए पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे और 500 राउंड रबड़ की गोलियां चलायीं. पुलिसिया अत्याचार का प्रताप इतना था कि जिस जगह पर डेढ़ हज़ार से भी अधिक आदिवासी प्रदर्शन कर रहे थे, वहां आधे घण्टे बाद रबड़ की गोलियां, टूटी चप्पलें, टूटी हुई लाठियां और कपड़े पड़े हुए थे. आदिवासियों को पीटने के बाद पुलिस ने उलटा 30 आदिवासियों के खिलाफ़ नामजद और 400 से भी ज़्यादा अज्ञात लोगों के खिलाफ़ केस दर्ज करा दिया.

हम 19 अप्रैल की शाम सुन्दरी गाँव से सटे गाँव भीसुर पहुंचे. अँधेरा हो चुका था और चारों ओर वह पूरी हरियाली, पहाड़ और घना जंगल मौजूद थे, जो 2016 में बांध के पूरा होने के बाद पानी के नीचे होंगे. यहां आदिवासियों से बातचीत में पता चला कि पुलिस वालों ने लोगों को दौड़ा-दौड़ाकर पहाड़ियों के पीछे धकेल दिया. आदिवासी बताते हैं, ‘सिंचाई की सारी मशीनों को कुओं में फेंक दिया गया. पुलिस और पीएसी के सिपाही घरों से बकरियां और मुर्गे पकड़-पकड़कर ले गए और उन्हें पका-खा लिया. गाँव के कई कच्चे घर तोड़े गए हैं. लोगों को बेतरह पीटा गया है. आदिवासी महिलाओं के साथ अश्लील हरक़तें की गयी हैं. सारी कार्रवाई में एक महिला कॉन्स्टेबल तक मौजूद नहीं थी.’ वे आगे बताते हैं कि कुछ लोगों ने आपत्ति भी की कि महिलाओं और बच्चों को छोड़ दें, लेकिन लाठियां बरपा रही पुलिस किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थी. पुलिस दिन में एक-दो बार आ-आकर पूछताछ करती है. सुन्दरी गाँव को दुद्धी से जोड़ती मुख्य सड़क पर पुलिस का कड़ा पहरा है. आलम यह है कि न तो कोई गाँव से बाहर जा सकता है और न भीतर. 19 अप्रैल को राजकुमारी नाम की आदिवासी महिला अपने बच्चे के साथ बाहर निकली तो पुलिस ने उसे बच्चे के साथ गिरफ्तार कर लिया. इसका कारण पूछने पर एसपी शिवशंकर यादव कहते हैं कि राजकुमारी गाँव की शान्ति भंग कर रही थी. कई ग्रामीणों को अपने रिश्तेदारों की कोई खोजखबर नहीं है. उन्हें डर है कि या तो उन्हें मार दिया गया है या जेल में बंद कर दिया गया है.

पुलिसिया बर्बरता से अलग बात करें तब भी इन महुआ बीनने, तेंदूपत्ता और लकड़ी बटोरने और किसानी करने वाले आदिवासियों को बांध निर्माण से सबसे बड़ी समस्या सही मुआवज़े और ज़मीन की है. उनका कहना साफ़ है कि हम और हमारी पीढ़ियाँ बांध निर्माण के बाद भी यदि ठीक से खाती-कमाती रहें तो क्या दिक्कत है? लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के स्टे ऑर्डर के बावजूद हो रहे बांध निर्माण में प्रशासन और प्रदेश सरकार की भूमिका को देखते हुए भविष्य और काला होता जाता है.

लाठीचार्ज के बाद पुलिस ने 19 घायल लोगों में से 15 को दुद्धी के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में भर्ती करा दिया. बाक़ी के बारे में पुलिस का कहना है कि वे किसी और अस्पताल में भर्ती कराए गए हैं. सामुदायिक केन्द्र में की गयी भर्ती को देखकर अंदेशा होने लगता है कि पुलिस कोई ज़रूरी बात छिपा रही है. सभी घायलों को उनके परिजनों से नहीं मिलने दिया जा रहा है. सामुदायिक केन्द्र के दरवाज़े पर पुलिस का कड़ा पहरा है. न किसी मीडियाकर्मी को घुसने की इजाज़त है और न ही किसी आम आदमी को. हम लोगों से कहा गया कि इस समय यहां धारा 144A लागू है, इसलिए आप भीतर नहीं जा सकते हैं. किसी भांति हम सीएचसी के भीतर घुस पाने में सफल हुए. अन्दर भर्ती गांव वालों की हालत देखकर आपका समाज की ऐसी सचाई से सामना होता है, जो हर हाल में अकल्पनीय है. पुलिस भी साथ-साथ अंदर घुसती है.
अजीबुद्दीन, जो हमें देखते ही फूट-फूटकर रोने लगे
योगी के कन्धों पर पुलिस लाठीचार्ज के निशान साफ़ देखे जा सकते हैं
मोईन के सिर पर चोट आई है. मोईन के घाव को ध्यान से देखने पर अस्पताल में सफ़ाई की असलियत पता चल जाती है
सिर की चोट से जूझ रहे फौजदार, जिनके लड़के की पांच दिनों बाद शादी है
पुलिसवालों को हमारे साथ मौजूद देखकर घायल आदिवासी कुछ भी बोलने से बचते हैं. हम उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है और खुलकर अपनी बात रखने का यही मौक़ा है, इसका लाभ उठाइये. भीसुर गाँव के 55 साल के उदय का 18 अप्रैल को हुए पुलिस लाठीचार्ज में दाहिना हाथ टूट चुका है और कूल्हे पर भी चोट के निशान मौजूद हैं. सुन्दरी गाँव के 65 वर्षीय अजीबुद्दीन हमें देखते ही फूट-फूटकर रोने लगते हैं. अजीबुद्दीन के सिर पर चोट के निशान हैं. उनके बाएँ हाथ की कुहनी खून से लथपथ है. उनके कूल्हे डंडों की चोट से नीले पड़ गए हैं. वे बताते हैं कि उन्हें दर्द इतना है कि वे पीठ के घाव नहीं दिखा सकते हैं. सुन्दरी गाँव के ही मोहम्मद जहूर बताते हैं कि लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले एक साथ छोड़े गए. कोई पहले या बाद में नहीं हुआ. सत्तर वर्षीय जहूर का सिर फूट चुका है और कूल्हों पर चोट के निशान हैं. जहूर रोते हुए बताते हैं कि एक बार डंडा खाकर ज़मीन पर गिर गए तो कितने पुलिस वालों ने मिलकर मारा, इसकी कोई याद नहीं है. सुन्दरी गाँव में रहने वाले 65 साल के योगी का सिर डंडे की चोट से फूट चुका है. वे भी कहते हैं कि हम चोट खाकर गिर गए, फ़िर भी पुलिस वाले हमें पीटते रहे. सुन्दरी गांव के रहने वाले फौजदार का भी सिर फूट चुका है. फौजदार बताते हैं कि दो दिनों बाद उनके बेटे का तिलक चढ़ना है और हफ़्ते भर बाद उनके बेटे की शादी है. वे कह रहे हैं कि पुलिस वाले निकलने ही नहीं दे रहे हैं, शादी का काम कैसे होगा? सुन्दरी गाँव के मोईन का भी सिर फूट चुका है और इनके भी कूल्हों पर चोट के निशान हैं. महिलाओं के वार्ड में भर्ती औरतें कहती हैं कि इनके कूल्हों में डंडे घुसाए गए और उसी जगह पर पुलिस ने डंडों से पीटा भी. हमने डंडे से सिर पर और महिलाओं के कूल्हों पर लगी चोटों के बारे में एसपी शिवशंकर यादव से पूछा कि ये बर्ताव तो मानवाधिकार का उल्लंघन है और सिर पर डंडे मारने पर सीधे-सीधे पुलिस के खिलाफ़ धारा 307 का मुकदमा दर्ज होता है. तो शिवशंकर यादव ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि सिपाहियों ने ऐसा जान-बूझकर किया होगा. हो गया होगा.’ हमने पूछा कि जिन चार लोगों को सिर पर चोट आई है, क्या उन सभी के साथ ऐसा हुआ होगा? इस पर एसपी शिवशंकर यादव ने कहा, ‘अब क्या कहें? हो जाता है.’
ज़हूर, जिनकी कमीज़ और चादर पर खून के धब्बे साफ़ देखे जा सकते हैं
महिलाओं पर प्रशासनिक बर्बरता के साक्ष्य, जो दिखाते हैं कि पुलिस ने अंधाधुंध लाठीचार्ज किया है
अपने-अपने बयानों के अलावा ये सभी लोग एक आम बात का ज़िक्र करते हैं, और वह ये कि इन्हें इनके किसी भी परिजन से मिलने नहीं दिया जा रहा है. घायल आदिवासियों के हाथों में चोट है, उन्हें दवाई और मरहम दिया गया है. वे कहते हैं कि परिवार के व्यक्ति के न होने से वे घावों पर मरहम भी नहीं लगा पा रहे हैं. इन्हें खाना दिया जाने का कोई निश्चित नियम नहीं है. कभी दिन में एक बार तो कभी दो बार खाना दिया जाता है, जो इनकी खुराक से बेहद कम होता है. हमारी मौजूदगी में सुबह साढ़े नौ बजे तक इन्होंने नाश्ता तक नहीं किया था. 18 अप्रैल को भर्ती होने के बाद से न इनके बिस्तरों की चादर बदली गयी है, न इनके कपड़े ही. कपड़ों और चादरों पर खून के दाग मौजूद हैं, जो तस्वीरों में साफ़ देखे जा सकते हैं. अस्पताल में जिस समय हम पहुंचे उस समय न कोई पंखा चल रहा था, न ही कोई ट्यूबलाईट जल रही थी. घायलों के घावों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं. वे पसीने से लथपथ थे. इस बाबत पूछने पर चीफ सुपरिटेंडेंट डा. यू.पी. पाण्डेय ने कहा कि लाईट नहीं है. हमने कहा कि बिजली न रहने पर जेनरेटर और उसके तेल का खर्च अलग से मिलता है, डा. पाण्डेय कोई जवाब न दे सके. इसके बाद किसी अज्ञात व्यक्ति ने हमारे सामने ही जाकर अस्पताल का मेन स्विच ऑन किया तो वार्डों मंद लाईट आ गयी. हमने पूछा कि घायलों के कपड़े और उनके बिस्तरों की चादर तक नहीं बदली गयी है, इस पर चीफ सुपरिटेंडेंट डा. पाण्डेय ने कहा कि तीन दिन पर चादर बदली जाती है, आज बदली जाएगी. हमने पूछा कि क्या खून से लिपटी चादर भी तीन दिनों पर बदली जाती है, इस पर भी डा. पाण्डेय कोई जवाब नहीं दे सके. घायल महिला आदिवासियों ने कहा कि उन्हें पीने का पानी नहीं मिल रहा है, उन्हें मजबूरन अस्पताल के शौचालय का पानी पीना पड़ रहा है. इसके बाबत जब हमने डा. पाण्डेय से पूछा तो वे एकदम से भड़क गए और कहने लगे, ‘शौचालय नहीं, बाथरूम का पानी है. हम लोग भी पीते हैं, वह एकदम साफ़ है. कहिए तो आपके सामने पीकर दिखाऊं.’ यह बात काफी समय से चली आ रही है कि पूरे सोनभद्र में पानी बेहद ज़हरीला हो चुका है, इसमें विषैले तत्वों और केमिकलों की मात्र बेहद ज़्यादा है. ऐसे में लोग या तो टैंकरों या खनिज जल का प्रयोग करते हैं.
चीफ सुपरिटेंडेंट डॉ. यू.पी. पाण्डेय
अब तक बांध निर्माण के समर्थक 100 से ऊपर के संख्या में सीएचसी के दरवाज़े पर पहुंच गए. वे ‘विकास-विरोधी वापस जाओ’, ‘एनजीओ-कर्मी वापिस जाओ’, ‘मारो जूता तान के’ और साथ-साथ ‘भारत-माता की जय’ के नारे लगा रहे थे. रोचक बात यह नहीं कि वे प्रदर्शन कर रहे थे, रोचक बात यह है कि इस बांध समर्थक हुजूम को सीओ(कमांडिंग ऑफिसर) देवेश शर्मा खुद अपनी अगुआई में लेकर आए थे. हमारे पास इसके पुख्ता सबूत भी मौजूद हैं. जब सीएचसी के भीतर एसडीएम दुद्धी के सामने हमने देवेश शर्मा को पकड़ा और एसडीएम से पूछा कि क्या आपने देखा कि ये किस तरह से भीड़ लेकर चले आ रहे हैं, एसडीएम ने साफ़-साफ़ इनकार कर दिया. देवेश शर्मा की तस्वीरें लेने का प्रयास होने लगा, तो वे नज़र बचाकर निकलने का और भागने का प्रयास करने लगे. किसी भी सूरत में वे सवालों का जवाब नहीं देना चाह रहे थे. वहीं मौजूद एक अन्य पुलिस इन्स्पेक्टर संदीप कुमार राय से हमने पूछा कि क्या अब जिले में धारा 144 प्रभाव में नहीं है, इस पर उनका जवाब चौंका देने वाला था. उन्होंने कहा, ‘सबका समय आता है. अभी तक आपका समय चल रहा था, अब हम लोगों का है.’ हमने संदीप राय से पूछा कि ‘आपके समय का मतलब क्या है’, तो उन्होंने कहा कि इस बारे में ‘बैठकर’ बात करेंगे. धारा 144A के बारे में आधिकारिक रूप से पता चला कि जिस जगह पर यह सब तमाशा हो रहा था, वहां किसी भी किस्म की धारा 144 प्रभाव में नहीं थी.
दुद्धी के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के बाहर बांध समर्थक प्रदर्शनकारियों की भीड़
एसडीएम दुद्धी के हस्तक्षेप के बाद पुलिस द्वारा प्रायोजित धरना सीएचसी के भर्ती वार्ड के दरवाज़े से हटकर मुख्य द्वार तक पहुंच गया. इसके बाद एसडीएम की गाड़ी से हमें अपनी गाड़ी तक छोड़ा गया, जिस पर भी रास्ते में जूते-चप्पल और कुछेक पत्थर भी फेंके गए. सूत्र बताते हैं कि प्रदर्शन कर रहे सारे लोग दुद्धी में स्थित ठेकेदार और व्यापारी हैं. किसी न किसी तरीके से बांध निर्माण के ज़रिए इनकी कमाई हो रही है. किसी की जेसीबी मशीन लगी है तो किसी का ट्रक या ट्रैक्टर. ऐसे में साफ़ ज़ाहिर है कि जो भी बांध निर्माण से कमाई पैदा कर रहा है, वह हर हाल में बांध का समर्थन ही करेगा.

कनहर बांध विरोधी आन्दोलन के नेता गंभीरा प्रसाद को कल पुलिस ने इलाहाबाद से उठा लिया. गंभीरा प्रसाद को पुलिस ने पुलिस से झड़प के मामलों में मुख्य अभियुक्त बनाया था. गंभीरा इलाहाबाद हाईकोर्ट के सीनियर वकील रविकिरन जैन के पास कनहर बांध के विरोध में दाखिल रिट का मामला देखने आये थे. वे किसी ज़रूरी कागज़ का फोटोस्टेट कराने बाहर आए तभी स्कॉर्पियो गाड़ी से सादे कपड़ों में 8 लोग उतर कर आए और गंभीरा को उठाकर ले जाने लगे. आसपास मौजूद लोगों ने दौड़कर तीन लोगों को पकड़ लिया, लेकिन बाक़ी पांच लोग गंभीरा को ले जाने में सफल रहे. इन लोगों ने खुद को सोनभद्र पुलिस का आदमी बताया लेकिन कोई भी साक्ष्य नहीं दिखा सके, साथ में गंभीरा की लोकेशन के बारे में कोई जानकारी साझा करने से मना कर दिया. कुछ उठापटक के बाद गंभीरा को लेकर वे सोनभद्र की ओर रवाना हो गए. पुलिस गंभीरा की गिरफ्तारी के लिए लगातार प्रयास कर रही थी, लेकिन गंभीरा मानते हैं कि उन्होंने कोई भी ऐसी दंडात्मक कार्रवाई नहीं की. वे केवल अपनी आवाज़ उठा रहे थे. उलटा पुलिस ने उनके खिलाफ़ झूठे आरोप मढ़े हैं. एसपी शिवशंकर यादव कहते हैं, ‘गंभीरा ने हमारे एसडीएम पर हमला किया. उन्हें स्लिप डिस्क हो गया. उन्होंने 10 लाख अपनी जेब से लगाकर इलाज कराया, फ़िर भी हमने गंभीरा को गिरफ़्तार नहीं किया.’ जबकि गंभीरा समेत सभी आदिवासियों का कहना है कि प्रशासनिक दल भागने में नदी के पत्थरों के बीच गिर गया था, इसके बाद उलटकर हमारे ही खिलाफ़ मुकदमा दर्ज करा दिया गया. ज्ञात हो गंभीरा के खिलाफ़ दुद्धी थाने में धारा 147/149/307/325/323/352/353 और 504 के तहत मामला दर्ज किया गया था.
गंभीरा प्रसाद
20 अप्रैल की दोपहर को जिलाधिकारी संजय कुमार ने सुन्दरी, भीसुर और कोरची गाँव के लोगों के साथ चौपाल लगाकर बातचीत की. अब इस बैठक के रुख का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मीटिंग को रखवाने वाले सपा के नेता इश्तियाक अहमद थे. डीएम ने ऐलान किया कि जिन भी लोगों को मुआवजा नहीं मिला है, उनके घर तक जाकर चेक द्वारा मुआवज़ा दिया जाएगा. इसके साथ डीएम ने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश के सभी 11 गाँवों के विस्थापितों की तीन पीढ़ियों के नाम लाभार्थियों की सूची में शामिल कराने को लेकर सर्वे कराया जाएगा और उनकी हरसंभव तरीके से मदद की जाएगी. इसके साथ राशन कार्ड और आय व जाति प्रमाण-पत्र के साथ-साथ पेंशन की भी घोषणा जिलाधिकारी संजय कुमार ने की है. जिलाधिकारी की ओर से जारी प्रेस नोट में जिक्र है कि एसपी शिवशंकर यादव ने दावा किया कि 'पुलिस ने विस्थापितों के साथ पूरी हमदर्दी' का परिचय दिया है. इस सभा में यह भी कहा गया कि जो लोग भोले-भाले विस्थापितों को बहकाकर आंदोलन चला रहे हैं, उन्हें किसी भी हाल में माफ़ नहीं किया जाएगा. इसका सीधा-सीधा निशाना ‘कनहर बचाओ आंदोलन’ से जुड़े हुए गंभीरा प्रसाद और महेशानंद हैं. कनहर बचाओ आंदोलन के विश्वनाथ खरवार गांव में ही मौजूद हैं. महेशानंद कहीं बाहर हैं. और गंभीरा के खिलाफ़ 23 दिसंबर 2014 को ही ‘राज्य बनाम गंभीरा’ का फर्जी मुकदमा दर्ज है, जिसके तहत पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए लगातार दबिश दे रही थी और गाँव वालों पर अत्याचार कर रही थी.
यह बात ध्यान में लाना ज़रूरी है कि आदिवासियों के साथ हुई इस बैठक में जिलाधिकारी संजय कुमार और एसपी शिवशंकर यादव के अलावा मौजूद सभी लोग समाजवादी पार्टी की पदाधिकारी थे. यानी मामला हर बार की तरह सरकारी तंत्र का न रहकर उस राजनीतिक दल का भी बन चुका है, जो सत्ता पर काबिज़ है. प्रशासन की दलील है कि उत्तर प्रदेश के सिर्फ़ 11 गाँव डूबेंगे. लेकिन लोग बताते हैं कि संख्या इससे ज़्यादा है. कोई भी व्यक्ति इससे सहमत होने को तैयार नहीं है कि उत्तर प्रदेश के लोग यदि मुआवज़ा पा भी जाते हैं तो छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखंड के सीमावर्ती गांवों में कौन-सी ज़मीन बंटेगी और कौन-सा मुआवज़ा मिलेगा? यह बांध है, जो किसी की खुराक़ बनता है तो किसी की छीनता है.

कनहर सिंचाई परियोजना पर ज़मीनी हकीकत को लेकर बहुत सारी सचाईयां उजागर हो चुकी हैं. विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जिस तरह से किसानों और आदिवासियों की अमूल्य संपदाओं से खेल रही है, ज़रूरी है कि पार्टी के रिपोर्ट कार्ड में वह भी शामिल हो.

इस मामले को लेकर जिस बात की ओर सरकार के साथ-साथ मीडिया का ध्यान नहीं जा रहा है, वह है इस बाँध के साथ दो और राज्यों का जुड़ाव. छत्तीसगढ़ और झारखंड से जुड़ा होने के कारण कनहर बांध का डूब क्षेत्र पूरी तरह से भरने के बाद इन राज्यों के सीमावर्ती गांवों को भी ले डूबेगा. और चूंकि कनहर पहाड़ी नदी है, इसलिए ज़ाहिर है कि बारिश के दिनों में बाढ़ आने पर स्थिति और भयावह हो जाएगी.
कनहर सिंचाई परियोजना के तहत बांध का निर्माण
ऐसा नहीं है कि हम अपनी रिपोर्ट के माध्यम से उत्तर प्रदेश की डूब क्षेत्र को कमतर अंक रहे हैं, बल्कि हम यह दर्शाने की कोशिश कर रहे हैं कि किस कदर उत्तर प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपालसिंह यादव समाजवादी पार्टी के तुष्टिकरण के लिए सारे मानवीय मूल्यों के खिलाफ़ कदम उठा रहे हैं. इसे इस तरीके से सोचना होगा कि यदि बारिश के दिनों में कनहर बांध के जलाशय से छत्तीसगढ़ और झारखंड के गांवों में बाढ़ आ जाएगी, उस स्थिति में भी उत्तर प्रदेश सरकार अपनी परिस्थिति के हिसाब से बांध के फाटक खोलने या बंद रखने का निर्णय लेगी.
कनहर सिंचाई परियोजना को लेकर दूसरे राज्यों की सरकारें बस बांध को ही फटी निगाहों से देख रही हैं. उनका न ज़मीनी सचाईयों से कोई स्पष्ट सम्बन्ध मालूम होता है, न ही आदिवासियों की समस्याओं से. छत्तीसगढ़ के सिंचाई मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से बातचीत में राज्य सरकारों की वही असलियत सामने आती है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की तस्वीर बयां करती है. वे कहते हैं, ‘देखिए, इस बांध के बनने से छत्तीसगढ़ के कुछ गांव डूबेंगे. ज़्यादा नहीं हैं.’ हम उन्हें बताते हैं कि ज़मीनी हकीकत तो यह है कि छत्तीसगढ़ के सरगुजा तक पानी चला जाएगा. वे इस बात से इनकार कर देते हैं, ‘नहीं ऐसा नहीं है. हालत इतनी ख़राब नहीं होगी. सीमा पर स्थित कुछ गांव ज़रूर डूबेंगे. हम उनके लिए उपाय कर रहे हैं.’ लेकिन इस बांध के बनने से छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के 39 गांव डूबेंगे. इन गांवों में त्रिशूली, तेमना, सेलिया, सल्वाही, मानकरी, जयनगर, सेमारवा, सोनावल, गुआदा और दुगारू जैसे कई सारे प्राकृतिक संपदा से संपन्न गांव पानी के भीतर आ जाएंगे. इसके साथ-साथ छत्तीसगढ़ के बीस हज़ार से भी ज़्यादा लोग इस बांध के बनने के कारण विस्थापित होंगे.

छत्तीसगढ़ के कृषि व सिंचाई मंत्री
 बृजमोहन अग्रवाल (ब्लॉग से साभार)

बांधों को लेकर मची एक वैश्विक बहस के बरअक्स जब हमने मंत्री जी से पूछा कि क्या आप बांध के खिलाफ़ नहीं हैं? तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया, ‘नहीं, हम किसी भी हाल में बांध के खिलाफ़ नहीं हैं. बांध विकास के साधन हैं. उसके खिलाफ़ खड़े होने का कोई सवाल ही नहीं उठता.’ मुआवज़े और भूमि के आवंटन को लेकर पूछे गए सवालों के बाबत बृजमोहन अग्रवाल ने कहा, ‘हम चाहते ही हैं कि किसानों को पूरा और उचित मुआवज़ा मिले, इसके लिए हमने सर्वे शुरू करवा दिया है.’ हमने पूछा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने निर्माण भी शुरू करा दिया है, आप अभी मुआवज़े के लिए सर्वे पर ही हैं. इस पर उन्होंने कहा, ‘कहां? कोई काम नहीं शुरू हुआ है. अभी तो उत्तर प्रदेश की सरकार भी सर्वे ही कर रही है. उन्होंने कोई काम नहीं शुरू किया है.’ जबकि हकीकत तो यह है कि पिछले साल दिसम्बर में काम शुरू करने के कारण ही यह पूरा आंदोलन इस स्थिति में आया.

छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में बात करें तो हालिया परिस्थिति यह है कि बृजमोहन अग्रवाल ने 17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर बाँध के बारे में सही-सही जानकारी माँगी है. बृजमोहन अग्रवाल ने इस पत्र में यह कहा है कि बाँध के निर्माण का कोई भी कार्य छत्तीसगढ़ में नहीं होना चाहिए. लेकिन हास्यास्पद लेकिन तथ्यात्मक सचाई यह है कि बांध के निर्माण को प्रतिबंधित करने से न जंगलों का डूबना रुकेगा और न घरों का.
जब हमने मानवीय आधार पर बृजमोहन अग्रवाल से पूछा कि क्या कोई अंदाज़ है कि छत्तीसगढ़ का कितना नुकसान होगा? इस पर उन्होंने कहा कि नहीं, कोई अंदाज़ नहीं है.

इसके बाद हमने झारखंड के कृषि व सिंचाई मंत्री रणधीर कुमार सिंह से बात की. रणधीर कुमार सिंह को यह समझाने में एक अच्छा ख़ासा वक्त लग गया कि हम किस परियोजना के बारे में बात कर रहे हैं. दरअस्ल कनहर सिंचाई परियोजना के तहत झारखंड के गढ़वा जिले के भी गाँव डूब क्षेत्र में आते हैं. इसके बारे में पूछने पर रणधीर कहते हैं, ‘मैं सबसे पहले एक बात बता दूं कि बांध बनने चाहिए और ज़रूर बनने चाहिए. इनसे किसान भाईयों के लिए विकास के रास्ते खुलते हैं. उनके खेत-खलिहानों को पानी मिलता है.
झारखंड के कृषि मंत्री रणधीर कुमार सिंह
(झारखंड सरकार की वेबसाईट से साभार)
रणधीर कुमार सिंह आगे कहते हैं, ‘चूंकि परियोजना अभी शुरू नहीं हुई है, इसलिए हम अभी सर्वे का काम कर रहे हैं. ताकी आदिवासी परिवारों को मुआवज़ा और ज़मीन मिल सके.’ यह एक छंटा हुआ सरकारी रवैया है, जहां मानवीय मूल्यों की कम से कम सुनवाई और पैरवी होती है. किसान और आदिवासी सिर्फ़ राजनीतिक ज़रूरत पूरा करने का हथियार बनते हैं.
बांध के बारे में आगे बात करते हुए रणधीर कुमार सिंह कहते हैं, ‘अब देखिए, झारखंड में नई-नई सरकार बनी है. समझने और चीज़ों को रास्ते पर लाने में समय तो लगेगा. हम चाहते हैं कि विकास हो, झारखंड का भी हो.’ तीन राज्यों के बीच का मुद्दा होने का सवाल रखने पर उन्होंने कहा, ‘अब देखिए, किसी न किसी तरह से हम सहयोग तो करेंगे ही कनहर के निर्माण के शुरू होने के वक्त भी इन तीनों राज्यों में आपसी असहमति के कारण ही परियोजना ठप्प पड़ गयी थी. दरअस्ल उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी के गांव के आदिवासियों को तो डूब की खबर दे दी थी, लेकिन छत्तीसगढ़ और झारखंड को इसकी खबर नहीं दी गयी थी. इसी गलती के चलते आज तक कनहर परियोजना लटकी रही. अब उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एक घोर असहमति का दौर आ चुका है. छत्तीसगढ़ सरकार ने आरोप लगाया है कि उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक अमला और पुलिस गैर-कानूनी ढंग से छत्तीसगढ़ की सीमा में घुस रहे हैं. ऐसा सच भी है क्योंकि किसी भी व्यक्ति को निर्माण-स्थल तक पहुँचने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार हरेक कदम उठा रही है. छत्तीसगढ़ के कुछ विधायकों ने यूपी पुलिस पर उनकी सीमा के भीतर उन्हें रोकने का आरोप लगाया है. इसे देखते हुए अब छत्तीसगढ़ सरकार ने इन सीआरपीएफ को राज्य की सीमा की ओर भेज दिया है. ऐसे में छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश एक ‘फ़ेस ऑफ़’ की स्थिति में आ चुके हैं.
1976 के हिसाब से कनहर परियोजना का मानचित्र
इसे लेकर एक गैर-पुख्ता खबर यह भी है कि प्रशासन ने सिंचाई की नीयत से बन रहे इस बांध के पानी के उपयोग के लिए कई निजी कंपनियों से सांठ-गांठ भी कर ली है. इन कंपनियों को बांध बनने के बाद पानी इस्तेमाल के लिए दिया जाएगा.
बांध बनाने का जिम्मा एचईएस इन्फ्रा को दिया गया है. मूलतः आंध्र प्रदेश की कमपनी एचईएस इन्फ्रा एक लंबे समय तो इस किस्म की टनल और बांध जैसी परियोजनाओं का ठेका लेती रही है. उत्तर प्रदेश सरकार के साथ-साथ मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, भारतीय रेलवे जैसे बड़े-बड़े नाम इनके कांट्रैक्ट-दाताओं की सूचियों में आते हैं.
सोनभद्र जाते हुए जब आप सोन नदी पार करते हैं, तो नदी एक छिछली नहर की तरह दिखती है. नदी में कई जगहों पर रेत के टीले उभर आए हैं, जो अपने क्षेत्रफ़ल में कई-कई बार कई हज़ार वर्गमीटर के हैं. सोन नदी में पानी का जितना भी बहाव बचा है, वह सिर्फ़ कनहर की वजह से बचा है. रिहन्द बनने के बाद सोन खत्म हो ही गयी थी, अमवार में कनहर पर तीन किलोमीटर लंबा बांध बन जाने के बाद सोन नदी पूरी तरह से खत्म हो जाएगी. इसका सबसे बड़ा असर गंगा पर भी पड़ेगा क्योंकि सोन गंगा की प्रमुख सहायक नदियों में से एक है. कनहर पर 290 किलोमीटर लम्बी नहर का भी निर्माण होना है, जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश का लगभग 50,000 वर्ग किलोमीटर इलाका प्रभावित होगा. आगे इस इस बाँध के जलाशय को रिहंद से भी जोड़ा जा सकता है, जिसकी वजह से बांध की ऊंचाई और 15 मीटर बढ़ा दी जाएगी.

यह वैश्विकता और विकास की होड़ ही है, जो सभ्यता और मानवीय तत्त्वों को उनकी जगहों से दूर धकेल देती है. इस खबर के लिखे जाने तक सोनभद्र के जिलाधिकारी ने परियोजना निर्माण-स्थल पर एक अस्थायी पुलिस चौकी के निर्माण को मंजूरी दे दी है ताकि विकास के नाम पर ज़रूरी समीकरण बनाए जा सकें.
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