सामूहिक बलात्कार कांड: सियासी हम्माम में सब नंगे

दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार कांड को लेकर उठे शोर के बीच राष्ट्रपति के सांसद बेटे माननीय अभिजीत मुखर्जी का बेशर्म बयान आया। हालांकि उन्होंने इसकी माफ़ी मांग ली लेकिन कहते हैं कि बंदूक से निकली गोली और ज़ुबान से निकले शब्द वापस नहीं लिये जा सकते। सवाल उठता है कि निकले ही कैसे? पेश है आदियोग की टिप्पणी;

तो अभिजीत मुखर्जी ने अपने कहे की माफ़ी मांग ली। उन्होंने दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद उठे जनता के ग़ुस्से के देशव्यापी तूफ़ान में शामिल महिलाओं पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। कहा था कि मोमबत्ती लेकर प्रदर्शन करना फ़ैशन बन गया है, कि ये डेंटेड-पेटेंड ख़ूबसूरत महिलाएं हैं, कि कहीं से छात्राएं नहीं लगतीं, कि रात में डिस्कोथेक जाती हैं, कि उन्हें ज़मीनी सच का पता नहीं, कि यह सब कुछ गुलाबी इंक़लाब जैसा है। उनके इस ‘दिव्य ज्ञान’ पर हंगामा मचना ही था, सो मचा और इतना मचा कि कुछ घंटे बाद ही उन्हें इसके लिए माफ़ी भी मांगनी पड़ी। लेकिन इसमें भी अगर-मगर था कि अगर उनके कहे से लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं तो वे माफ़ी चाहते हैं, कि मगर उनके कहे का वो मतलब नहीं था जो समझा गया, कि उनके कहे का संदर्भ तो कुछ और ही था, और कि अगर पार्टी कहेगी तो वे इस्तीफ़ा देने को तैयार हैं।

लेकिन यह माफ़ीनामा लौट के बुद्धू घर को आना नहीं था। इसमें भी हेकड़ी थी और शर्त थी। उनका बयान केवल महिला विरोधी नहीं था बल्कि इस बहाने जन आक्रोश को हल्का और हवाई करार देनेवाला भी था। यह मुद्दे की गंभीरता को कम आंकना भी था।

अभिजीत मुखर्जी कोई पहले राजनेता नहीं जिनके श्रीमुख से यह महिला विरोधी बयान आया हो। उनसे पहले हम कई राजनेताओं से इससे कहीं ज़्यादा फूहड़ और असभ्य बयान सुन चुके हैं। उनकी सूची बहुत लंबी है और जिसमें वाम दलों को छोड़ कर लगभग सभी राजनैतिक दलों के महारथी शामिल रहे हैं। इस हिसाब से कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद(यू), तृणमूल आदि में कोई अंतर नहीं है। इन महारथियों में तेज़ तर्रार और हमलावर दिखती नेतानियों के भी नाम हैं। इससे पता चलता है कि महिला के तौर पर उनकी पहचान केवल राजनैतिक सहूलियत के हिसाब से है वरना तो वे सबसे पहले मौजूदा सत्ता की प्रतिनिधि हैं जो विभेदकारी, हिंसक और निरंकुश है, मर्दवाद का घोषणापत्र है।
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तो अभिजीत मुखर्जी के बयान पर इतना हल्ला-गुल्ला क्यों? यह पहली बार हुआ जब किसी बलात्कार कांड के ख़िलाफ़ पूरे देश में ग़ुस्से की आंधी उठी। उसके बीच अभिजीत मुखर्जी का बयान आया। जन प्रतिनिधि होने के नाते उन्हें इस आंधी के साथ खड़ा होना था, और उनमें ऐसा कुछ किये जाने की तड़प दिखनी चाहिए थी कि लगातार बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं पर लगाम लगे, कि ऐसा बवंडर उठने की ज़रूरत ही न रहे। उल्टे उन्होंने धधकती आग में अपने घटिया बयान का घी डालने का काम किया। यह जन प्रतिनिधि होने का लक्षण नहीं। यह तो अयोग्यता है।

लेकिन दुर्भाग्य कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का यही सच है। लेकिन यहां ख़ास बात यह कि अभिजीत मुखर्जी कोई मामूली हैसियत के राजनेता या सांसद नहीं हैं। वे देश के प्रथम नागरिक के बेटे हैं। ऐसे में उनके भद्दे और भोंडे बयान के प्रतीकात्मक अर्थ बहुत गहरे हैं।

अच्छा लगा कि राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने अपने सांसद भाई के बयान पर हैरानी और उससे अपनी असहमति ज़ाहिर की। भाई के कहे पर अपनी ओर से माफ़ी भी मांगी। मान कर चलना चाहिए कि इसके पीछे भाई को संकट से उबारने की कोई रणनीति नहीं था। शर्मिष्ठा मुखर्जी की टिप्पणी समझदारी का बयान थी। वे केवल महिला नहीं हैं, नृत्यांगना भी हैं। जानती हैं कि कलाकार चाहे स्त्री हो या पुरूष, मंच पर आने से पहले ग्रीन रूम में होता है। यह मेक रूम होता है जहां चरित्र या उस कला विधा के मुताबिक वह अपनी सज-धज से गुज़रता है। टीवी स्टेशन पर बैठे एंकर भी मेकप रूम से निकल कर ही कैमरे का सामना करते हैं। वे यह भी जानती हैं कि पुरूषों के मुक़ाबले महिलाओं में थोड़ा करीने से रहने की मूल प्रवृत्ति अधिक होती है। कोई महिला साड़ी बांधते हुए नहीं चल पड़ती जबकि पुरूष कुर्ता पहनते, धोती में लांग मारते या पैंट की ज़िप बंद करते हुए बाहर निकलता आराम से देखा जा सकता है।

करीने से रहने का मतलब सबके लिए अलग-अलग होता है। कहीं इसका क़ायदा कामचलाऊ हो सकता है तो कहीं मुक्कमल और हम जानते हैं कि कम से कम सज-धज के मामले में मुक्कमल होने की कोई हद नहीं होती, इसका कोई पैमाना नहीं होता। यह पसंद-नापसंदगी से तय होता है और मौक़े की नज़ाकत से भी। यह सरासर निजी मामला है कि कब, कहां और कैसे सादा रहा जाये या कितना रंगीन? इसका क़ाबलियत या हक़दारी से कोई लेनादेना नहीं।

यह कौन सी समझ है कि फ़ैशनेबल औरत किसी न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकती? आख़िर डिस्कोथेक जाने और विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के बीच उल्टा रिश्ता कैसे है? क्या डिस्कोथेक इतनी बुरी जगह है कि वहां जाना (गौर कीजिए कि रात को जैसा कि अभिजीत मुखर्जी ने कहा) सामाजिक सरोकारों पर बोलने की आज़ादी से हाथ धो बैठना है? अगर हां तो उसे चलाने की इजाज़त ही क्यों है?

लेकिन बात कुल इतनी नहीं है। उन्होंने सड़कों पर उतरी महिलाओं को पेंटेड से पहले डेंटेड बताया। डेंटिंग पुरानी पड़ चुकी गाड़ियों की टूटफूट को दुरूस्त करने के लिए होती है और पेंटिंग उसे नयी रंगत देने के लिए। तो क्या उनकी नज़र में वे औरतें गाड़ियां हैं? इसे और विस्तार से कहें तो क्या उपयोग (ज़ाहिर है कि मर्दों के लिए) का सामान हैं? यह अश्लील शब्दावली है। यह मर्दवाद नाम के नाग की फुफकार है। यह महिलाओं की गरिमा के ख़िलाफ़ है। ज़ाहिर है कि राष्ट्रपति के बेटे से (जो राजनीति के मैदान में भी है) इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।

इसका स्वागत किया जाना चाहिए कि बहन ने भाई के अनर्गल बयान को ख़ारिज कर दिया। किसी भी संवेदनशील बहन से यही उम्मीद की जाती है। यह और अच्छा होता अगर वे इस पर और कड़ा रूख़ अपनातीं और भाई से अपनी सांसदी छोड़ने की मांग करतीं। काश कि वे जागरूक नागरिक होने का बेहतरीन उदाहरण पेश करतीं।

बहरहाल, बलात्कार कांड ने विपक्षी दलों को सरकार के ख़िलाफ़ हल्ला बोलने का एक और हथियार थमा दिया है। वे राज धर्म की दुहाई देते हुए सरकार को कोस रहे हैं, महिलाओं की हिफ़ाज़त में उसकी नाकामियों को उधेड़ रहे हैं। इसे पलट कर कहें तो अपने आंगन की गंदगियों से लोगों का ध्यान धुंधला कर रहे हैं ताकि उनकी कमीज़ थोड़ा कम गंदली माने थोड़ा उजली दिखे। पूछा जाना चाहिए कि अगर उसे महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो उसने उन राज्यों में क्या किया जहां उनकी सरकारें हैं या कभी रही हैं। बसपा के राज में (जिसकी बागडोर एक महिला के हाथ में है और जो ख़ुद को दलित की बेटी भी कहती है) दलित महिलाओं के साथ होनेवाले तमाम रिकार्ड टूट गये। उसकी धुर विरोधी सपा के मौजूदा राज में नाबालिग लड़कियों के साथ होनेवाले बलात्कार के अपराधों में उछाल आ गया।

बलात्कार कांड को लेकर केंद्र की और दिल्ली की सरकार को घेरने-गरियाने में भाजपा सबसे आगे है। महिलाओं को देवी बताने का उसका लंबा अनुभव है और जिसकी जड़ें उसके हिंदू हिंदुस्तान की अवधारणा का हिस्सा हैं। हालांकि इसे भुलाया नहीं जा सकता कि गुजरात ने 2002 में किस तरह सरकारी संरक्षण में व्यापक पैमाने पर हुई बर्बर मुस्लिम विरोधी हिंसा झेली और जिसमें ख़ास कर विधर्मी देवियों के साथ बुरे सुलूक़ की तमाम सीमाएं टूट गयीं। यह मोदी राज का इतिहास है जिनके लगातार चौथे राज्याभिषेक को भाजपा देश की तक़दीर बदलने की आहट के बतौर पेश करने में मशगूल है। वैसे, भाजपा शासित छत्तीसगढ़ में हर आठ घंटे पर एक बलात्कार की घटना का औसत है और मध्य प्रदेश तो ख़ैर इस मामले में देश में पहले स्थान पर पहुंच चुका है।

अभिजीत मुखर्जी के बयान की जितनी निंदा की जाये, कम है। लेकिन कांग्रेस को क्या कहें जिसकी कमान एक महिला के हाथ में है और जो एक बेटी की मां भी है, और जो आज़ादी के आंदोलन में अपनी ऐतिहासिक भूमिका और उसमें महिलाओं के योगदान का गुन गाते हुए नहीं अघाती। क़ायदे से तो उसे अपने सांसद के ग़ैर ज़िम्मेदार और घटिया बयान के लिए फ़ौरन माफ़ी मांगनी चाहिए थी और बग़ैर यह सोचे कि उनके पिता देश के राष्ट्रपति हैं, उनसे इस्तीफ़ा लेना चाहिए था। इससे तो राष्ट्रपति का ही मान बढ़ता- इस सबसे ऊंची संवैधानिक कुर्सी का भी और उस पर आसीन महामहिम प्रणव मुखर्जी का भी। यह सबूत होता कि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों की इज़्ज़त करता है जहां उसकी बेक़द्री करने की किसी को इजाज़त नहीं। जो ऐसी ज़ुर्रत करता है, कड़ी सज़ा भुगतता है।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। और क्यों होता? सत्ता का मौजूदा ढांचा, उसके मूल्य और उसका चरित्र ही मूल रूप से जन विरोधी जो है।

बलात्कार कांड पर उठे जन उभार को बार-बार सलाम। लेकिन याद रखना होगा कि मौजूदा व्यवस्था के निशाने पर केवल औरतें नहीं, बच्चे भी हैं। रूप अलग हो सकते हैं लेकिन निशाने पर मेहनतकश भी हैं- दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक भी हैं। इसलिए ज़ाहिर है कि हक़ और इंसाफ़ के पैरोकार और उनके संगठन भी हैं। यह समझ ही मौजूदा आक्रोश को बुनियादी बदलाव की राह पर ले जा सकती है। इससे समाज को बर्बर होने से बचाने और उसे अधिकाधिक मानवीय बनाने में बड़ी मदद मिलेगी। तब इस रास्ते पर बलात्कार के लिए फांसी की सज़ा दिये जाने की मांग भला क्यों उठेगी? समझ बनेगी कि जघन्य और दुर्लभतम अपराधों के लिए जीवन छीनने का अधिकार किसी को नहीं। यह आधुनिकता की निशानी नहीं, कि गुनाह को रोकने की गारंटी नहीं। यह तो क़ानूनी अपराध होगा, महापाप के बदले महापाप होगा। लेकिन हां, उसके लिए त्वरित और कड़ी से कड़ी सज़ा ज़रूर तय होनी चाहिए।

 
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