जितना ऊंचा विकास का पहाड़, उतनी गहरी बदहाली की खाई

इस व्योपारी को प्यास बहुत है

गिर्दा उत्तरांचल में हुए तमाम जन आंदोलनों की सांस्कृतिक आवाज़ थे- चाहे वह नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन रहा हो या फिर अलग उत्तराखंड राज्य का आंदोलन। वे एक साथ बहुत कुछ थे- नाटककार, संगीतकार, गायक, लोक परंपराओं के विशेषज्ञ, जन कवि... और सबसे पहले एक बेहतर इंसान। कोई दो साल पहले उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा और अपने पीछे पूरे देश में फैले अपने चहेतों के अलावा तमाम यादगार रचनाएं छोड़ गये। यह कविता उन्होंने कोई 30 साल पहले लिखी थी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है;

एक तरफ बर्बाद बस्तियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ डूबती कश्तियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ हैं सूखी नदियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ है प्यासी दुनिया, एक तरफ हो तुम

अजी वाह! क्या बात तुम्हारी
तुम हो पानी के व्योपारी
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी

सारा पानी चूस रहे हो
नदी-समुंदर लूट रहे हो
गंगा-यमुना की छाती पर
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो

उफ! तुम्हारी ये खुदगर्जी
चलेगी कब तक ये मनमर्जी
जिस दिन डोलेगी ये धरती
सर से निकलेगी सब ये मस्ती

महल-चैबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बोल व्योपारी- तब क्या होगा
जब बूंद-बूंद को तरसोगे

नगद-उधारी- तब क्या होगा
आज भले ही मौज उड़ा लो
नदियों को प्यासा तड़पा लो
गंगा को कीचड़ कर डालो

लेकिन डोलेगी जब धरती
बोल व्योपारी- तब क्या होगा
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी- तब क्या होगा
योजनाकारी- तब क्या होगा
नगद, उधारी- तब क्या होगा

एक तरफ हैं सूखी नदियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ है प्यासी दुनिया, एक तरफ हो तुम
इसमें दो राय नहीं कि पिछले 12 सालों में छत्तीसगढ़ ने विकास दर में अभूतपूर्व बढ़त हासिल की। साथ ही इसमें भी दो राय नहीं कि विकास का फल राज्य के आम लोगों को नसीब नहीं हो सका। उल्टे उनकी बदहाली में और बढ़त हो गयी। जन आंदोलनों की बाढ़ सी आ गयी। सराकर भी निरंकुश होती गयी और राज्य दमन अपनी सीमाएं लांघने लगा। पेश है इस उलटबांसी की तसवीर खींचती राहुल बनर्जी की टिप्पणी;

छत्तीसगढ़ में भारत के सभी राज्योंह की तुलना में खनिजों के सबसे अधिक भंडार हैं। लौह अयस्कस एवं टीन अयस्का में यह अव्वलल स्था न पर है जबकि कोयला, डोलोमाइट एवं क्वानर्ट्ज में दूसरे स्थाएन पर। राज्य बनने से पहले इन मूल्यंवान खनिजों पर जाहिर है कि मध्यो प्रदेश का हक था एवं इनके दोहन एवं विकास से प्राप्तम राजस्वय का उपयोग कमोबेश पूरे मध्ये प्रदेश में हुआ करता था। वैसे, खनिज आधारित उद्योग स्थायपित करने की प्रक्रिया की रफ्तार ज्याकदा नहीं थी। फलस्वारूप अविभाजित मध्य प्रदेश की विकास दर अपेक्षाकृत कम थी।

संयोग से सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्यप के गठन के बाद से लौह अयस्के, कोयला, डोलोमाइट जैसे खनिजों की मांग विश्व् बाजार में बहुत बढ़ गयी एवं इनसे निर्मित होनेवाले इस्पाात, सीमेंट एवं बिजली की मांग भी बढ़ गयी। इसलिए नया छत्तीतसगढ राज्य् इन महत्वापूर्ण खनिजों के लिए अच्छेी दाम मांग सका एवं यह शर्त भी रख सका कि इन खनिजों का उपयोग कर छत्तीसगढ़ में ही ज्या्दा से ज्यासदा उद्योग स्थाापित किये जायें- टाटा, जिंदल, वेदांत जैसे बडे उद्योग घरानों द्वारा। इसलिए साल 2000 से 2012 तक राज्यं में आर्थिक विकास का सूचकांक सकल घरेलू उत्पा्द की औसत सालाना वृद्धि दर 10 प्रतिशत से भी अधिक रहा है जो 2009-10 में 11.5 प्रतिशत था।

जाहिर है कि ऐसे तेज विकास से सरकार के पास राजस्वस की आवक ज्याादा होती है एवं सरकार इसका उपयोग विकास को बढ़ावा देने में कर सकती है। छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही हुआ कि कृषि एवं सड़क व्यकवस्थाम को सुधारने हेतु निवेश किये गये जिससे कृषि में भी उत्पािदन वृद्धि हुई। इसके अलावा शिक्षा, स्वािस्य्जि  एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन में हुए सुधार से इन क्षेत्रों में भी गति आयी। इस प्रकार पिछले बारह सालों में छत्तीसगढ़ में उल्लेइखनीय विकास हुआ है जो प्रमुख रूप से सत्तास का केंद्र भोपाल से रायपुर स्थाीनांतरित होने का ही फल है।

परंतु सवाल यह है कि क्यान इस त्वकरित विकास का फायदा आम छत्तीसगढ़िया को मिल सका? केंद्र सरकार की दो संस्थाुओं द्वारा किये गये सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि इस विकास का फायदा आम आदमी तक नहीं पहुंच रहा है। राष्ट्री य प्रादर्ष सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किये गये घरेलू उपभोग व्यंय के सर्वेक्षण ने 2005 में छत्तीसगढ़ में औसत उपभोग स्तार को पूरे देश में सबसे कम आंका था एवं 2010 में भी केवल बिहार से थोड़़ा बेहतर पाया था। इसके अलावा राष्ट्री य पोषण आकलन संगठन (एनएनएमबी) द्वारा किये गये सर्वेक्षणों से पता चलता है कि राज्य में कुपोषण एवं रक्त( अल्प ता का स्त र काफी गम्भीरर है।

इसके अलावा औद्यो‍गिक विकास के कारण एक तरफ लोगों को उनकी जमीन और निवास से, पर्याप्तप मुआवजा एवं पुनर्वास दिये बिना ही, बेदखल किया जा रहा है। साथ ही नये उद्योगों में नौकरियां बहुत कम सृजित हो रही हैं क्यों कि सभी उद्योग कम्यू न  टर चालित मशीनों पर आधारित हैं एवं स्था यी तौर पर केवल कुछ उच्चउ तकनीकी शिक्षा प्राप्तह लोगों को ही काम पर लगाया जाता है और जो अधिकतर बाहरी होते हैं। थोड़ी बहुत अस्थागयी नौकरियां होती हैं और वह भी अधिकतर बाहरी लोगों को मिलती हैं ताकि उद्योगपतियों को स्थािनीय मजदूरों की संगठित शक्ति का सामना न करना पडे।

यद्यपि बड़े किसानों को राज्यी की कृषि नीतियों से कुछ फायदा हुआ है लेकिन छोटे किसानों को कर्ज के बोझ तले ही जीना पड़ रहा है। इसलिए किसानों की आत्महहत्याट की दर चिंतनीय रूप से अधिक है। हालांकि इस वर्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने इस समस्याु का हल इस प्रकार निकाल लिया कि किसानों की आत्मतहत्यार को किसी अन्ये सामाजिक श्रेणी में डाल दिया जाये।

स्वा भाविक है कि आम जनता में अपनी इस बदहाली के विरुद्ध रोष है जो जब-तब संगठित या स्वात:स्फू र्त रूप में प्रस्फुिटित होता रहता है। पूरे प्रदेश में विरोध के स्वकर निरंतर बुलंद हो रहे हैं। जिन क्षेत्रों में खनन या किसी औद्योगिक इकाई के लिए जमीन के अधिग्रहण की कार्रवाई की जा रही है, वहां तो सबसे ज्याकदा विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। मजदूर आंदोलन भी शबाब पर है एवं राज्यै की पूरी ताकत साथ में होने के बावजूद पूंजी‍पतियों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है। राज्यी सरकार एवं पूंजीपति दोनों मिल कर विरोध के स्वरों को कुचलने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि भरी सभा में मुख्य मंत्री द्वारा प्रस्तुनत किये गये आंकडों की विश्वसनीयता पर प्रश्ने करनेवाले नागरिक को पुलिस की निर्मम पिटाई के बाद जेल में बंद कर दिया जाता है।

खनिज भंडारों का खनन एवं उस पर आधारित उद्योग लगाने की कवायद के चलते छत्तीसगढ़ राज्य  बनने के बाद से ही बस्तेर के सुदूर दक्षिण में भी राज्यल सरकार ने उद्योगों के प्रवेश की कोशिशें तेज की जो माओवादियों के प्रभाववाला इलाका है। इस कारण माओवादियों के साथ सुरक्षा बलों का घमासान मचा हुआ है। पिछले 12 सालों के दौरान इस गृहयुद्ध में हजारों सुरक्षाकर्मी, माओवादी एवं सामान्या नागरिक मारे जा चुके हैं। और तो और, कई निर्दोष लोगों को केवल संदेह के आधार पर जेलों में बंद कर रखा गया है। लाखों लोग इस युद्ध के डर से अपना घर-बार छोड़ कर ओडिशा या आंध्र प्रदेश में जाकर गुजर-बसर करने लगे हैं और वहां बुरे हाल में हैं। इस युद्ध से पीड़ित ज्याआदातर लोग आदिवासी हैं। अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विशेष पंचायती राज, वन अधिकार कानून एवं मनरेगा का सही क्रियान्वूयन नहीं होने के कारण भी आदिवासियों की हालत और पतली हो गयी है।

हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य  बनने के कारण समग्र रूप से राज्यर की आर्थिक विकास दर एवं सेवा प्रदाय में उल्ले्खनीय वृद्धि हुई है लेकिन यह उन्नजति राज्य के आम नागरिकों की जिंदगी को नहीं छू सकी है बल्कि उनकी स्थिति तुलनात्महक रूप से और बदतर हो गयी है। बड़ी संख्या में आम लोगों को रोजगार की तलाश में पलायन करना पड़ता है। आशा की किरण यह है कि इतनी विषम परिस्थितियों में भी लोग हिम्मरत नहीं हारे हैं, न्या यपूर्ण एवं खुशहाल छत्तीसगढ़ के सपने को साकार करने के लिए संघर्ष की राह पर हैं जैसे छत्तीसगढ़ के लोक गीतकार फागूराम का यह मशहूर गीत गा रहे हों कि– ‘छत्तीसगढ़ दाई ला हावे रे गुहार, सभो जन मिलकर शोषण ला टारबो।’

(इंदौर निवासी राहुल बनर्जी इतिहास, राजनीति, विकास, संस्कृति और आंदोलनों आदि विविध विषयों के जाने-माने टिप्पणीकार हैं और छत्तीसगढ़ पर गहरी नज़र रखते हैं। खेत मज़दूर चेतना संघ के बैनर तले लंबे समय से मध्य प्रदेश के भील आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं। मूलत: अंग्रेज़ी में लिखते हैं लेकिन छत्तीसगढ़ पर फ़ोकस संघर्ष संवाद की इस श्रंखला के लिए उन्होंने यह आलेख हिंदी में लिखा)
Share on Google Plus

Unknown के बारे में

एक दूसरे के संघर्षों से सीखना और संवाद कायम करना आज के दौर में जनांदोलनों को एक सफल मुकाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी है। आप अपने या अपने इलाके में चल रहे जनसंघर्षों की रिपोर्ट संघर्ष संवाद से sangharshsamvad@gmail.com पर साझा करें। के आंदोलन के बारे में जानकारियाँ मिलती रहें।
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें