हमारी प्रकृति और भविष्य को बचाने का संघर्ष
हम शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दें कि हम अपने सभी देशवासियों, खासकर गरीबों समेत, अपने देश का विकास चाहते हैं. इसलिए हम ऊर्जा उत्पादन करने वाली योजनाओं और प्रकल्पों का समर्थन करते हैं.
हम सिर्फ यह कह रहे हैं कि हमें ऊर्जा का उत्पादन सूरज, वायु, जलधाराओं और कचरे इत्यादि से करना चाहिए ताकि हमारी ज़मीनें, पानी, हवा, समुद्र और उससे मिलने वाले खाद्य, पशु और फसलें बरबाद ना हों. आखिरकार भोजन, पौष्टिकता और साफ़ हवा को बचाना ऊर्जा सुरक्षा से ज़्यादा ज़रूरी है.
लेकिन भारत सरकार भारत में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा के पार्क बनाना चाहती है जहां छः से दस संयत्र लगाए जाएंगे - तमिलनाडु में कलपक्कम और कूडनकुलम, आंध्र प्रदेश में कोव्वाडा, ओडिशा में पती सोनापुर, पश्चिम बंगाल में हरिपुर, कर्नाटक में कैगा, महाराष्ट्र में जैतापुर और तारापुर, गुजरात में मीठी विरदी, राजस्थान में बांसवाड़ा और रावतभाटा, हरियाणा में गोरखपुर, मध्य प्रदेश में चुटका, इत्यादि। ये अणु-बिजलीघर अमेरिका, रूस, फ्रांस, जापान दक्षिण कोरिया जैसे देशों की मदद से बनाए जाएंगे। अमेरिका ने पिछले कई दशकों से अपने यहां नए परमाणु कारखाने नहीं बनाए हैं. फुकुशिमा दुर्घटना के बाद जापान ने अपने सारे 52 संयंत्र बंद कर दिए हैं. जर्मनी ने अपने सारे अणु-बिजलीघर क्रमशः बंद करने का निर्णय लिया है. क्या हमें भारत को इन देशों द्वारा खुद छोड़ी गयी असुरक्षित और खर्चीली तकनीक बेचने की जगह बनने देना चाहिए?
भारत सरकार ऑस्ट्रेलिया, कज़ाख़िस्तान और नामीबिया जैसे देशों से यूरेनियम ईंधन आयातित करेगी, जिन्होंने खुद अपने यहां एक भी प्लांट नहीं लगाए हैं.
परमाणु ऊर्जा सस्ती नहीं है. ज़मीन अधिग्रहण, लम्बी अवधि के निर्माण की लागत और इसमें निर्माण पूर्ण होने के पहले ही समय के होने वाली मूल्य-वृद्धि, सुरक्षा इंतज़ामों खर्चे, संयत्रों आयु ख़त्म होने उनको सुरक्षित तौर पर बंद करने का खर्च जो कि बहुत ही ज़्यादा होता है, खतरनाक परमाणु कचरे के भंडारण और प्रबंधन की लागत - परमाणु ऊर्जा उत्पादन के हर स्तर पर बेलगाम खर्चे होते हैं जिनको सरकार भारी सब्सिडी देकर पूरा करती है.
परमाणु ऊर्जा साफ़-सुथरी नहीं है. इसके निर्माण और संचालन की प्रक्रिया में यूरेनियम खनन से लेकर कचरे के भंडारण तक भारी मात्रा में स्टील और सीमेंट खर्च होता है जिसके लिए अंततः कार्बन-उत्सर्जक पेट्रोल और बिजली ही काम आती है. इन सबसे अतिरिक्त प्रदूषण होता है जो उस संयत्र के प्रदूषण में नहीं गिना जाता है. अणु-बिजलीघरों से बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी निकलता है जो 48,000 सालों तक घातक बना रहता है. भारत जैसे सघन आबादी वाले देश में सरकार इतने ज़्यादा कचरे का क्या करेगी, कहाँ रखेगी?
परमाणु ऊर्जा स्वास्थ्यप्रद नहीं है. परमाणु संयत्र अपने पास के समुद्र या नदी में बड़ी मात्रा में गर्म और विकिरण-युक्त पानी संयंत्र को ठंडा रखने में इस्तेमाल होने के बाद वापस छोड़ते हैं. इससे समुद्र का पानी और भूगर्भीय जल प्रभावित होता है. ये संयत्र आयोडीन, सीज़ियम, स्ट्रॉन्शियम और टेलीरियम जैसे घातक तत्व दिनरात हवा में छोड़ते हैं. इन सबके कारण आस-पास की आबादी गर्भावस्था की बीमारियां, बच्चों में जन्मजात अपंगता, विकिरण-जनित अन्य रोग और कैंसर इत्यादि का शिकार बनती है.
परमाणु ऊर्जा नैतिक नहीं है. चालीस-पचास साल की आयु वाले इन संयंत्रों के अल्पकालिक फायदों के लिए हमें अपने होने वाली पीढ़ियों के भविष्य और प्रकृति से खिलवाड़ करने का क्या हक़ है? हमारे नेता और राजनीतिक पार्टियां विदेशी कंपनियों से मिले कमीशन की वजह से इस नीति का समर्थन करते हैं.
हमारी समस्याओं का हल परमाणु ऊर्जा नहीं है. जलवायु-परिवर्तन का समाधान अणु-बिजली नहीं है क्योंकि इसमें कार्बन-उत्सर्जक प्रक्रियाओं का बहुत इस्तेमाल होता है. परमाणु ऊर्जा हमारी धरती पर जानलेवा कचरा फैलाती है. अणुऊर्जा से देश की बिजली का सिर्फ 2% बनता है और भविष्य में भी इसका कुल योगदान कम ही रहने वाला है.
क्या हमें अपनी राजनीतिक और आर्थिक-सामाजिक आज़ादी इन संयत्रों के लिए भेंट चढ़ा देनी चाहिए? क्या हमें फिर से पूरे देश को गुलाम हो जाने देना चाहिए? या हमें नए तरीके से सोचना चाहिए और अपनी समस्याओं का सकारात्मक हल ढूंढना चाहिए?
जैसा महात्मा गांधी ने कहा था - "ज़मीन, हवा और पानी हमें अपने पूर्वजों से सौगात में नहीं मिली है, ये सब हमारे बच्चों का कर्ज है और हमें उनको वैसे ही सौंपना चाहिए जैसा हमको मिला"
आइये, हम मिलकर एक 'परमाणु मुक्त भारत' बनाएं। इससे जुड़ी डील-करार, खनन, संयंत्र, कचरागाह बमों का विरोध करें।
परमाणु ऊर्जा विरोधी जनांदोलन (PMANE )
इदिंतकराई
तिरुनेलवेली जिला
तमिलनाडु
koodankulam@yahoo.com
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