तीन महीने पहिले वह गाँव था; अब उस गाँव का अस्तित्व नहीं है !

चित्र –छह माह पहले के है , पर्रासपानी गाँव के घर ,स्कूल बच्चे ,खेत ,नदी आदि
घने जंगल के बीच देनवा नदी के रमणीक और मनमोहक किनारे पर बसा छोटा सा गाव था पर्रासपानी. पिपरिया तहसील,जिला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश मे स्थित इस गाँव मे गोंड –कोरकू जनजाति के लोग सैकड़ो साल से निवास कर रहे है. सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व के कोर जोन के बीच बसे गांवो को हटाने का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है.दर्जनो गाँव कोर जोन से बाहर आकर नई जगह बसाये गए है. टाइगर को बचाने और आदमियो को खदेड़ने के लिए सरकार कुछ ज़्यादा ही तत्पर दिखाई दे रही है.

अधिकांश गांवो को पूरा का पूरा एक जगह से दूसरी जगह बसाया गया है. गाँव के उसी पुराने नाम को ही मान्यता है. मतलब रोरीघाट –बदकछार मे जन्म लेने वाला रोरीघाट –बदकछार मे ही रहता है. उस गाँव के शिक्षक स्कूल ,दास्तावेज ,आंगनवाड़ी आदि सब नई बसाहट मे ट्रांसफर हो गए. लेकिन पर्रासपानी मे यह विस्थापन बड़े विचित्र ढंग से हुआ है.

गाँव मे रहने वाले कुल 23 परिवार के लोगो ने जिस गाँव मे जन्म लिया अब उसका अस्तित्व ही नहीं है. 23 परिवार मे से 13 को रैयतवाडी,06 को आमदेह,03 कुर्सिखापा और 1 परिवार मुहारी खुर्द मे मे बसे है. स्कूल के शिक्षक एवं स्कूल का रिकार्ड चन्दन पिपरिया के स्कूल मे है. अंग्रेज़ो ने भारत को विभाजन के साथ आज़ादी दी और हमारी सरकार गाँव के विनाश और विभाजन को आदिवासियो का विकास बता रही है.

विस्थापन अपने आप मे एक त्रासदी है ,वह चाहे विकास के नाम पर हो या बाघ संरक्षण के नाम पर. होशंगाबाद जिला तो विस्थापितों का गढ़ है. तवा बांध से विस्थापित 44 गाँव के आदिवासी आज भी समुचित पुनर्वास की प्रतीक्षा कर रहे है. प्रूफरेंज से उजड़े 13 गाँव और आर्डिनेंस फ़ेक्ट्री के लिए उजड़े 8 गाँव के विस्थापित किसान आदिवासी संगठन और समाजवादी जंनपरिषद के नेतृत्व मे लंबे समय से संघर्ष कर रहे है. अब सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व के कोर जोन से व्यापक रूप मे विस्थापन किया जा रहा है.

सवाल यह है कि विकास की हर योजना की गाज़ आदिवासियो पर ही क्यो गिरती है ? हमारे –आपके विकास की कीमत कब तक चुकाते रहेंगे आदिवासी ? हजारो साल से वन्यप्राणियों और वन से सहअस्तित्व बना कर जीवन जीने वाले आदिवासी बाघ और जंगल के लिए अचानक खतरा क्यो और कैसे बन गए है ? राजा –महाराजों ,अफसरो ने अपने शौक के लिए बाघ का शिकार किया, उनके शौक से जब बाघ की प्रजाति पर संकट आया तो उसका खामियाजा आदिवासी भुगत रहा है, अर्थात करे कोई भरे कोई.

साभार: गोपाल राठी की वाल से



Share on Google Plus

Unknown के बारे में

एक दूसरे के संघर्षों से सीखना और संवाद कायम करना आज के दौर में जनांदोलनों को एक सफल मुकाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी है। आप अपने या अपने इलाके में चल रहे जनसंघर्षों की रिपोर्ट संघर्ष संवाद से sangharshsamvad@gmail.com पर साझा करें। के आंदोलन के बारे में जानकारियाँ मिलती रहें।
    Blogger Comment
    Facebook Comment

1 टिप्पणियाँ: