राजस्थानः चुनावी साजिशों की ‘रिफाइनरी’

स्वतंत्र पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने बाड़मेर में रिफाइनरी परियोजना पर चल रही रस्साकशी का जायजा लेने के लिए पिछले दिनों राजस्थान का दौरा किया. ज़मीनी आंदोलन के उतार-चढ़ाव और सरकारी साजिशों की यह कहानी दूसरे कई आन्दोलनों में भी देखी जा सकती है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनावों का लोगों की असल जिंदगियों और हितों से कैसा रिश्ता बनता है, ये सबकुछ अभिषेक की लम्बी रिपोर्ट में खुलकर सामने आता है जिसे हम संघर्ष संवाद के पाठकों के बीच तीन किस्तों में साझा कर रहे हैं. पेश है पहला भाग:  

इस कहानी को नंगी आंखों से देखते वक्त मैं राजस्थान के विधानसभा चुनाव से दो हफ्ते पीछे था। जब यह कहानी लिख रहा हूं, तो मतदान को अब भी पांच दिन शेष हैं। विडंबना यह है कि जब कहानी छप कर आएगी तब तक चुनाव समाप्त हो चुके होंगे, कहानी में एक नया अध्याय जुड़ चुका होगा और इसके पात्रों की तकदीर का फैसला भी हो चुका होगा। फिर भी, कहानी है तो कही ही जानी चाहिए। इसलिए नहीं, कि इससे कोई फर्क पड़ने की उम्मीद है बल्कि इसलिए कि इस कहानी के बुने जाने की ज़मीन के नीचे जो साजिशें पक रही हैं, उसमें अवाम, सियासत और उसके दलालों की बराबर भागीदारी है।

यह कहानी एक अदद पेट्रोलियम रिफाइनरी की है, जो उतनी अदद भी नहीं क्योंकि यह देश की सबसे महंगी रिफाइनरी है। तकरीबन चालीस हज़ार करोड़ रुपये की लागत से हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन की इस रिफाइनरी में राजस्थान सरकार की भी हिस्सेदारी है। देश में अब तक चालू या प्रस्तावित पेट्रोलियम रिफाइनरियों में प्रति मिलियन टन तेल के परिशोधन की औसत कीमत 2000 करोड़ रुपये है, लेकिन हम जिसकी बात कर रहे हैं वहां यह लागत दोगुनी है। कहते हैं कि मुद्रास्फीति की दर ने ऐसा कारनामा किया है। मुद्रास्फीति की दर आगे और बढ़ती रहेगी, इसमें कोई शक नहीं। रिफाइनरी की लागत और महंगी होती रहेगी, इसमें भी कोई शक नहीं। सभी को बस एक शक है- रिफाइनरी लगेगी या नहीं। रेत के टीलों के अपार विस्तार के बीच शिलान्यास के षडयंत्रकारी पत्थरों की शक्ल में नामौजूद इस रिफाइनरी की खूबी यह है कि इससे राजस्थान के मारवाड़ की राजनीति तय हो रही है। आप चाहें तो इसे देश के सबसे बड़े घोटालों में भी गिन सकते हैं, शर्त बस ये है कि कपिल सिब्बल की ‘‘ज़ीरो लॉस थियरी’’ आपने नहीं पढ़ी हो...!

...तो कहानी शुरू होती है बाड़मेर जिले की बायतू तहसील में और खत्म होती है इसी जिले की बालोतरा तहसील स्थित नमक की पुरानी खदानों के बीच पचपदरा(पंचभद्रा) में, जहां युद्धस्तर पर बनाए जा रहे राष्ट्रीय राजमार्ग से उड़ती धूल में लिपटे साइबेरियाई सारस नमक की झीलों में अपने प्रवास की आखिरी सांसें गिन रहे हैं। बायतू, जोधपुर-बाड़मेर हाइवे पर बाड़मेर शहर से करीब पचास किलोमीटर पहले पड़ता है। क्षेत्रफल की दृष्टि से काफी विशाल इस ब्लॉक में आबादी बिखरी हुई सुदूर ढाणियों में रहती है। यह ब्लॉक बाड़मेर जिले में पलायन के लिहाज से काफी अहम है क्योंकि यहां के करीब अस्सी फीसदी परिवारों के लोग गुजरात के कांडला और गांधीधाम में जाकर मजदूरी करते हैं। खेती के नाम पर रेत में सिर्फ बाजरा, ग्वार, मोठ और मूंग उपजते हैं। ग्रामीण जीवनशैली का आलम ये है कि शहर से आए किसी व्यक्ति को अगर गेहूं की रोटी खानी हो तो पहले बताना पड़ता है क्योंकि ढाबों में अमूमन बाजरे की रोटी ही मिलती है। यहां सुबहें दोपहर जैसी सूनी होती हैं और शामें रात जैसी सुनसान। इसी शुष्क वीराने में चार साल पहले अचानक धरती की छाती से तेल की धार फूटी थी और प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने जनता को अब तक के सबसे बड़े पूंजी निवेश के तौर पर एक तेल रिफाइनरी का सपना दिखाया था। तब काफी विचार-विमर्श के बाद यह तय हुआ था कि रिफाइनरी बायतू ब्लॉक के लीलाणा गांव (प्रशासनिक नाम है लीलाला) में लगाई जाएगी। 

लीलाणा गांव, बायतू के बाज़ार से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर है। बायतू से गुजरने वाला हाइवे छोड़ने के बाद एक पतली सी टूटी हुई सड़क फूटती है जिसके दोनों ओर रेत के टीले हैं और बबूल के झाड़। उसी पर चलते-चलते अचानक लीलाणा आ जाता है। गांव क्या है, एक सरकारी माध्यमिक स्कूल है और उसके बगल में एक दर्जी की दुकान, जिससे गांव की पहचान की जा सकती है। वह 15 नवंबर की तारीख थी और मुहर्रम की छुट्टी, जब हम यहां पहुंचे। स्कूल बंद था। आसपास कोई आबादी नहीं दिखती थी। सिर्फ एक दर्जी अपनी दुकान पर एक बच्चे के साथ बैठा था। सर्दियों का सूरज सिर पर चढ़ चुका था और पैरों के नीचे की रेत पर्याप्त गर्म हो चुकी थी। जहां तक निगाह जाती, वहां तक निर्जन दिख रही इस जगह से किसी रिफाइनरी का क्या लेना-देना हो सकता है, यह सवाल लगातार मन में कौंध रहा था। दर्जी से कुछ आरंभिक परिचय के बाद हमने यहां आने का मंतव्य बताया। स्कूल के सामने रेत के मैदान की ओर इशारा करते हुए उसने बताया कि इसी जगह एक तंबू के नीचे 199 दिनों तक रिफाइनरी के खिलाफ धरना चला था। उसने अपनी दुकान के एक कोने से फ्लेक्स के कुछ बैनर निकाले और बाहर टांग दिए। ‘‘किसान संघर्ष समिति, लीलाणा’’ के नाम से बने इन बैनरों पर लिखा था, ‘‘रिफाइनरी हेतु जमीन अवाप्ति के विरोध में।’’ ‘‘ऐसे और भी हैं घर पर’’, उसने बताया। मैंने पूछा, ‘‘आपके पास कैसे?’’ उसने कहा, ‘‘सब मेरे पास ही है। आंदोलन में किसानों ने जो ज्ञापन जिलाधिकारी को दिया था, वो सब भी मेरे पास है।’’ और ऐसा कहते हुए उसने अपनी दराज से जमीन अधिग्रहण के खिलाफ करीब दो दर्जन दस्तखत वाले अलग-अलग तारीखों के कई हस्तलिखित ज्ञापन निकाले और मुझे थमा दिए। ‘‘क्या ये ज्ञापन जिलाधिकारी को नहीं दिए गए थे, यूं ही बनाए गए?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘दिए थे। धरना 199 दिनों तक चला था न, कुछ दिनों के ज्ञापन मेरे पास हैं। कुछ घर पर हैं।’’ ‘‘क्या मैं ले जाऊं?’’ मैंने पूछा। ‘‘हां, रख लो न। इसका क्या करना है। अब तो प्रोजेक्ट यहां से हट गया।’’  

बात तार्किक थी, लेकिन अभूतपूर्व भी। दिल्ली में बैठकर हमें जैसी खबरें मिल पाती हैं, उनसे दिमाग में मोटे तौर पर एक तस्वीर बनती है कि देश भर में परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण हो रहा है और स्थानीय लोग उसका विरोध कर रहे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों की घटनाओं से मिलकर प्रतिरोध का एक ऐसा आख्यान बनता है जिसमें कई बार आंदोलन के दमन और असफलता का अध्याय होता है तो कुछ कहानियां कामयाबी की भी होती हैं। लीलाणा में रिफाइनरी के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध एक कामयाब दास्तान थी जिसे पढ़-सुन कर हम यहां पहुंचे थे, लेकिन बैनरों और ज्ञापनों की ऐसी लावारिस बरामदगी पहले कभी नहीं हुई। मैं ज्ञापनों को अपने झोले में खोंस ही रहा था कि एक मोटरसाइकिल पर पीछे सिलिंडर लादे कोई आकर मेरे पास रुका। उसने हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया और बोला, ‘‘मैं इसी स्कूल में टीचर हूं नरपतराम।’’ बातचीत में उसने भी 199 दिनों के धरने की बात दुहराई। वे बोले, ‘‘लोग तो अपनी जमीनें देने को तैयार ही नहीं थे। सरकार ने थक कर जब पूछा कि क्या चाहते हो, तो किसानों ने एक करोड़ प्रति बीघे की मांग कर डाली।’’ ‘‘एक करोड़?’’ ‘‘हां जी, जमीनें तो देनी नहीं थीं, इसलिए एक करोड़ बोल दिया। सरकार को नहीं मानना था, सो उसने 22 सितंबर को यहां से दूर पचपदरा में शिलान्यास करवा दिया। सोनिया गांधी आई थी उसमें, आपको पता होगा। उसके अगले ही दिन धरना टूट गया।’’ ‘‘यानी आंदोलन का ही नतीजा था कि सरकार ने रिफाइनरी को यहां से हटा दिया?’’ मैंने पूछा। ‘‘बिल्कुल सौ परसेंट, गांव वालों की एकता के सामने सरकार झुक गई।’’ ऐसा कहते ही नरपतराम के चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान तैर गई। उन्होंने दोबारा हाथ मिलाया और चल दिए। 

नरपतराम गांव वालों की जिस एकता की बात कर रहे थे, वह तकनीकी तौर पर उन पांच गांवों की एकता थी जिनकी कुल 10,000 बीघा ज़मीन रिफाइनरी में जा रही थी। दो गांवों लीलाणा और जोंदुओं की ढाणी की सारी ज़मीन जा रही थी जबकि बाकी तीन गांवों गोदारों की ढाणी, मीठियातला और लीलासर(कोलू) की जमीनें आंशिक रूप से इस प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ने वाली थीं। तकरीबन हज़ार परिवार प्रोजेक्ट से प्रभावित हो रहे थे। ऐसे ही एक परिवार से मिलने हम धरनास्थल से कुछ किलोमीटर आगे एक घर में पहुंचे। इस परिवार के मुखिया रूपाराम रिफाइनरी विरोधी आंदोलन के सबसे सम्मानित बुजुर्ग नेता हैं। वे फौज से करीब चार दशक पहले अवकाश लेकर लौट आए थे। आंदोलन की पृष्ठभूमि पर बातचीत के दौरान बताने लगे कि कैसे कुछ लोगों ने आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की थी और दस लाख रुपया प्रति बीघा के मुआवजे पर ही तैयार हो गए थे। रूपाराम बोले, ‘‘ये प्रोजेक्ट चालीस हजार करोड़ का है। हमारी जमीनों की कीमत हमने एक करोड़ बीघा मांगी थी। कुल दस हजार करोड़ बैठता है। सरकार चाहती तो दे सकती थी, लेकिन उसने 23 मांगों में से एक भी मांग पर सुनवाई नहीं की।’’ मैंने पूछा, ‘‘लेकिन आंदोलन तो जमीन अधिग्रहण के खिलाफ था, फिर एक करोड़ मुआवजा मिले या न मिले उससे क्या फर्क पड़ता?’’ इसका जवाब देने के लिए रूपाराम हमें घर के बाहर रेतीले मैदान में ले गए। उन्होंने कुछ औषधीय पौधे और झाड़ दिखाए, बाजार में सबकी कीमत गिनवाई, रेतीले मैदानों की वनस्पति संपदा के बारे में जानकारी दी और बोले, ‘‘अब बताओ, हम तो पहले से ही करोड़पति हैं। शंखपुष्पी का बीज ही बेचने लगें तो जाने कितना पैसा आ जाए। एक करोड़ मांग कर क्या गलत किया? हमारी ज़मीन तो उससे भी महंगी है।’’ क्या यह जवाब सही था? सोचते हुए मैंने सहमति में सिर हिलाया और हम आगे बढ़ गए। 

अपने सवाल का जवाब खोजने हम यहां से लीलासर(कोलू) जा रहे थे। लीलासर गांव की कुछ ही जमीन परियोजना में जाने वाली थी। यह लीलाणा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही है। मेरे साथ मौजूद स्थानीय युवक जोगाराम ने रास्ते में गांव से पहले एक युवक को पकड़ लिया। वह भी बाइक से था। दोनों ने कुछ देर बात की। यहां की मारवाड़ी समझने में दिक्कत आती है, सिर्फ इतना समझ आया कि वे शिलान्यास की कुछ बात कर रहे हैं। हमें लेकर वे एक ऐसी जगह पहुंचे जहां पहले की ही तरह चारों ओर रेत के धोरे थे, बबूल की झाड़ थी, एक ओर पसरा हुआ रेतीला मैदान था और दूर एक टीले पर कोई बंजारा परिवार तंबू लगाए दिख रहा था। यह लीलासर था। मैदान में एक अधबना कमरानुमा पत्थरों का ढांचा था। रेत में एक पत्थर सा गड़ा था। युवक ने उसकी ओर इशारा कर के कहा, ‘‘यहीं रिफाइनरी का शिलान्यास हुआ था।’’ मेरा माथा ठनका। मैंने कहा कि रिफाइनरी का शिलान्यास तो बालोतरा के पास पचपदरा में हुआ है। ‘‘यहां कैसा शिलान्यास?’’ दोनों मुस्कराए। ‘‘यहां भी हुआ था। लोगों ने किया था। अभी समझ में आ जाएगा, आप रुको, हम आते हैं।’’ यह कहते हुए स्थानीय युवक जोगाराम को लेकर रेत में गायब हो गया। करीब दस मिनट तक मैं उस निर्जन उजाड़ में उनका इंतज़ार करता रहा। वे आए, तो साथ में काले रंग का एक पट्ट टिकाकर साथ लाए। बड़ी सफाई से युवक ने उसे वहां मैदान में लगे पत्थर पर टिका दिया और बोला, ‘‘लो जी, हो गया शिलान्यास।’’ 

मेरी आंखों के सामने उस काले शिलान्यास पट्ट पर तेज़ धूप में दमकते सुनहरे अक्षर अपने समय का सबसे बड़ा विद्रूप रच रहे थेः
लीलाला(बायतु) में रिफाइनरी का शिलान्यास
मुख्य अतिथिः आम जनता
अध्यक्षः आम जनता
के कर कमलों के द्वारा दिनांक 21 सितम्बर 2013 को किया गया

रिफाइनरी का सरकारी शिलान्यास सोनिया गांधी के हाथों जब 22 सितम्बर को पचपदरा में किया गया, उससे एक दिन पहले ही यहां के लोगों ने खुद यह काम धरना स्थल से कुछ दूर कर डाला था। लेकिन वह धरना? 199 दिनों का आंदोलन? वह सब क्या था? आखिर पांच गांवों की एकता का मतलब क्या था? युवक ने मेरी असहजता को ताड़ते हुए समझाया कि आंदोलन तो ‘‘सिर्फ पांच लोगों ने किया था।’’ ‘‘लेकिन ज्ञापन पर तो करीब दो दर्जन लोगों के दस्तखत रोज़ थे?’’ उसने कहा, ‘‘सब उन्हीं के रिश्तेदार थे। हमारी जमीनें जा रही थीं, लेकिन हम लोग तो दस लाख प्रति बीघा मुआवजे पर तैयार हो ही गए थे। वे लोग नहीं चाहते थे कि रिफाइनरी यहां लगे। हमने कभी रिफाइनरी का विरोध नहीं किया।’’ मुझे रूपाराम की बात याद आई कि कैसे कुछ लोगों ने आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की थी और दस लाख रुपया प्रति बीघा के मुआवजे पर तैयार हो गए थे। मैंने उस युवक से खुलकर जानना चाहा कि ‘‘वे लोग’’ कौन थे ‘‘हम लोग’’ कौन हैं? उसने बताया, ‘‘पांचों गांवों के लोग चाहते थे कि रिफाइनरी यहीं लगे। उससे काम मिलता, विकास होता। लीलाणा गांव के कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि उससे कांग्रेस को रिफाइनरी का फायदा मिल जाता। उन्हीं लोगों ने विरोध किया और लोगों को बहकाया। वे अब भी यहां रिफाइनरी लगाने के विरोधी नहीं हैं। बस ये चाहते हैं कि उसका शिलान्यास भाजपा के राज में हो। रिफाइनरी तो वैसे भी यहीं लगनी है, इसीलिए हम लोगों ने खुद ही शिलान्यास कर दिया।’’ 

यह बात इतनी आसानी से पचने वाली नहीं थी। चालीस हजार करोड़ रुपये की एक सरकारी परियोजना जिसे केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी प्राप्त हो, क्या उसके साथ कहीं भी कभी भी ऐसा नाटक हुआ है? यहां के विधायक कांग्रेस से आते हैं जिनका नाम कर्नल सोनाराम है। उनकी खुद यहां 63 बीघा जमीन है जिस पर अपनी दिवंगत बेटी के नाम एक ट्रस्ट खोलने की उनकी योजना थी। वे रिफाइनरी के समर्थन में थे। क्या महज पांच लोगों का विरोध एक विधायक और उसकी सरकार पर भारी पड़ सकता है? आखिर कौन हैं ये ‘‘पांच लोग’’?
(क्रमशः जारी )

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