कि नया साल सचमुच नया हो

हर साल नया साल आता है। मुबारकबाद के रस्मी अल्फ़ाज़ में, धूमधड़ाकों और शानदार नज़ारों में सजता है। चार दिन की चांदनी में इतराता है और फिर बेरंग-बेनूर और बदहवास सा गुज़र जाता है, बेदम और पुराना होकर दोबारा नये साल की दहलीज पर पहुंच जाता है, नये कलेंडर में बदल जाता है। घना करता हुआ कुहासा- ज़ुल्म और सितम का, ख़ौफ़ और दहशत का, ऊंचनीच और नाइंसाफ़ी का, ज़िल्लत और बेचारगी का, ग़रीबी और मुफ़लिसी का... ।

दिल चाहता है कि कहें कि नया साल चाहतों की ख़ाली झोली में ढेर सारी ख़ुशक़िस्मती, बरक़्क़त और ख़ुशहाली भरे, बेहतरी के सपनों में नया रंग भरे। लेकिन दुख, सदमे और ग़ुस्से के बीच यह रस्म अदायगी कैसे करें कि नया साल मुबारक हो आपको?

लेकिन हां, घुप्प अंधियारों के बीच उस लड़की को ज़रूर याद करें जिसने मर्द की खाल ओढ़े चंद भेड़ियों की दरिंदगी झेलने के बाद उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। बेपनाह तक़लीफ़ को अंगूठा दिखाते हुए, मौत से बहादुराना जंग लड़ते हुए उसने कहा था कि मैं जीना चाहती हूं। भले ही वह ज़िंदगी से हार गयी लेकिन पूरे देश को हिला गयी, जगा गयी। यह सबक़ सिखा गयी कि जीना है तो लड़ना है और लड़ने से ही पाना है। उसकी याद को ज़िंदा रखना ज़िंदगी को सलाम करना है।

उसकी और उस जैसे तमाम बहादुरों की याद को आंसुओं का नहीं, भिंचीं मुठ्ठियों का नज़राना चाहिए। हक़, इंसाफ़ और इंसानियत की दुश्मन ताक़तों के ख़िलाफ़ चौतरफ़ा हल्ला बोलता नफ़रत का सैलाब चाहिए। इस दौर की बेहूदा और बदरंग तसवीर बदलने को बहुरंगी मगर हमशक़्ल इरादों का जुनून चाहिए। जीत का पक्का यक़ीन और कोई मीठा-सुनहरा ख़्वाब चाहिए। अंधियारे को चीरती मशाल चाहिए, मरघटी सन्नाटों को तोड़ती आवाज़ चाहिए।

तो इस दुआ के साथ ज़रूर नया साल मुबारक हो आपको कि हर बस्ती और आंगन में इंसानी हैसियत के साथ जीने की चाहत परवान चढ़े, एकजुटता की बयार चले और संघर्षों की तान छिड़े... हिम्मत और हौसलों का परचम न थके, न डिगे, न रूके... जंग जारी रहे। - शब्द और चित्र : आदियोग 

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