अभिषेक श्रीवास्तव
इस विधानसभा चुनाव में पंजाब में हाशिये की राजनीति क्या परिणाम लेकर आएगी, इस बारे में कोई भी दावा हाशिये की बिखरी हुई शक्ल को पहचाने बगैर करना नामुमकिन है. यह हाशिया उन लगभग 30 फीसदी दलितों का है, जो कभी कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक हुआ करते थे.
बहुजन समाज पार्टी के आने के बाद इस वोटबैंक में अकाली दल की सेंध लगी और आज सबसे नई दावेदार आम आदमी पार्टी इस तबके के मतों पर अपना हक़ जता रही है. कांग्रेस, बसपा और 'आप' की इस तिकड़ी में अस्वाभाविक दावेदार अकाली और धर्म-आधारित डेरों को भी जोड़ लें, तो सबसे ज्यादा दलित आबादी वाले सूबे पंजाब में हाशिये की राजनीति एक कुकुरभोज सी जान पड़ती है.
सबको चुनाव में अपने-अपने हिस्से की फिक्र है, लेकिन बीते 11 नवंबर को हुई 72 वर्षीय दलित वृद्धा गुरदेव कौर की मौत (जिसे पुलिस ने बाकायदा ग़ैर-दलितों के हाथों हुई एक हत्या माना है) अब भी सवाल की शक्ल में मुंह बाए खड़ी है.
सन्नाटे भरे इतवार के दिन 29 जनवरी को संगरूर की अनाज मंडी में भूमिहीन दलितों की उमड़ी भीड़ इस बात का गवाह थी कि पंजाब में अगली सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, भूमिहीन, ज़मीन और जाति के सवाल से उसे आंख मिलानी ही होगी. अपने हक़ की ज़मीन पर कब्ज़ा लेने की कोशिश करने वाले दलितों को संगरूर जिले के झलूर गांव में पांच अक्टूबर को जाट सिक्खों और उनके समर्थित एक अन्य दलित समूह द्वारा बुरी तरह से पीटा गया, औरतों पर हमला किया गया, बड़ी संख्या में लोगों को चोटें आईं और बड़ी संख्या में लोगों को जेल भेजा गया.
इस घटना की तुलना पिछले साल हुए गुजरात के ऊना कांड से की जा सकती है. ऊना कांड के बाद गुजरात में जिग्नेश मेवाणी ने दलित अस्मिता यात्रा निकाल कर दलितों को लामबंद करने की कोशिश की थी. यहां भी झलूर कांड के खिलाफ़ 21 अक्टूबर को एक लंबी प्रतिरोध यात्रा दलितों ने निकाली.
दोनों घटनाओं में बस फर्क इतना रहा कि गुजरात सरकार द्वारा ज़मीन बांटने के आश्वासन पर जिग्नेश ने एक अक्टूबर को प्रस्तावित रेल रोको अभियान रद्द कर दिया, लेकिन पंजाब के दलित गुरदेव कौर की लाश को लाल झंडे में लपेट कर दो हफ्ते तक चक्का जाम किए रहे पर नतीजा सिफर रहा. लिहाजा आज चुनाव के मौसम में इनके गांव के गांव नोटा का बटन दबाने का फैसला कर चुके हैं.
ज़मीन के मुद्दे पर पंजाब का दलित दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्सा वह है जिसके पास राजनीतिक नुमाइंदगी के रूप में मायावती हैं या फिर जिसे अकाली या अन्य दलों की सरपरस्ती हासिल है. दूसरा तबका वह है जो इनमें से किसी को अपना तारणहार नहीं मानता. वह हक़ की बात करता है. हक़ उस 33 फीसदी पंचायती ज़मीन पर, जो 1961 के पंजाब जमीन नियमन कानून में उसे मिला था, लेकिन आज तक असलियत में नहीं मिला.
इसीलिए भूमिहीन दलित नोटा का बटन दबाएंगे. ऐसा नहीं है कि मायावती ज़मीन के प्रश्न को नज़रंदाज करती हैं. 30 जनवरी को फगवाड़ा की अनाज मंडी में उन्होंने ज़मीन का सवाल तो उठाया, लेकिन इतना ही कहा कि दलितों को उनका वाजिब हक तभी मिल पाएगा जब 'पंजाब में मेरी सरकार आएगी.'
पचास साल से ज्यादा की नाइंसाफी और उत्पीड़न के बाद अब दलितों के भीतर मौजूद भूमिहीन तबका किसी दूसरी सरकार का इंतज़ार करने के मूड में नहीं है, फिर वह मायावती की ही क्यों न हो. बहुत संभव है कि 11 मार्च के नतीजों के बाद पंजाब में आई नई सरकार को सिर मुंड़ाते ही ओले झेलने पड़ जाएं क्योंकि अप्रैल से 33 फीसदी पंचायती ज़मीन की नई बोली लगने वाली है.
पंचायत जमीन का खेल
पंजाब में 100 फीसदी नजूल की ज़मीन और 33 फीसदी पंचायत की ज़मीन दलितों के लिए आरक्षित है, लेकिन करीब साढ़े पांच दशक से उन्हें इसका हक नहीं मिल पाया है. परंपरागत रूप से ताकतवर जाट सिक्ख अलग-अलग हथकंडों से इन ज़मीनों पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं.
पंचायत की यह 33 फीसदी ज़मीन कुल मिलाकर पंजाब में 50,000 एकड़ के आसपास बैटती है. इसकी हर साल बोली लगती है. चूंकि बोली में केवल दलित ही हिस्सा ले सकते हैं, इसलिए जाट सिक्ख चतुराई से इस जमीन को हासिल रने के लिए दलितों का इस्तेमाल करते रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों से उन्हें सत्ताधारी अकाली दल का समर्थन हासिल रहा है. इस चलन के खिलाफ़ आज से करीब दस साल पहले भूमिहीन दलितों में जागरूकता फैलनी शुरू हुई और ज़मीन कब्ज़ाने का आंदोलन 2008 में देखने में आया.
राज्य में इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे संगठन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीएससी) के सुखविंदर पप्पी बताते हैं कि अब तक 43 गांवों में भूमिहीन दलितों द्वारा ज़मीनें कब्ज़ाई जा चुकी हैं. वे बताते हैं, 'पंजाब में भूमि सुधार का पहला नारा बंदा सिंह बहादुर ने दिया था. पहली बार हालांकि 1948 से 1952 के बीच लाल पार्टी के नेतृत्व में चले मुजारा आंदोलन के दौरान 884 गांवों में 18 लाख एकड़ ज़मीन भूस्वामियों से लेकर दलितों को दी गई जो एक बड़ी कामयाबी रही.'
पप्पी अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, 'लाल पार्टी से संगरूर के ही एक सांसद भी हुए थे. नक्सलबाड़ी के दौरान यहां भी भूमि सुधार का नारा आया, लेकिन ठीक से लागू नहीं हो सका. यह प्रयोग तीन जगहों पर हुआ- एक रोपड़ का बिड़ला फार्म, दूसरा फिरोज़पुर का बेदी फार्म और तीसरी जंगलों की ज़मीन थी समाना में. नक्सलबाड़ी के दौरान ही यह आंदोलन टूट भी गया. उसके बाद इतिहास में पहली बार ज़मीन का सवाल इस रूप में सामने आ रहा है इस बार.'
झलूर की हिंसक घटना में मारी गईं गुरदेव कौर के बेटे बलविंदर जेडपीएससी के संगठनकर्ता हैं. वे अपने साथियों के साथ करीब दो महीना जेल में बिता चुके हैं. उनके भाई बलबीर किसान संगठन से जुड़े हुए हैं. झलूर में प्रमुख रूप से दबंगों ने इन्हीं के मकान को निशाना बनाया था और इनकी मां का पैर काट दिया था जिसके चलते उनकी मौत हो गई.
बलविंदर कहते हैं, 'सवाल वोट का है ही नहीं क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल हमारा साथ नहीं देगा. यह लड़ाई बुनियादी सामाजिक बदलाव की है.' जेडपीएससी के नेता गुरमुख समझाते हैं, 'हमारा संघर्ष बुनियादी बदलाव का है. यह सही है कि बदलाव राजनीतिक दल के बगैर संभव नहीं है. हमारा लक्ष्य था कि अपने संघर्ष का राजनीतिकरण कर सकें. एक बड़ी रैली आयोजित करने की योजना थी, लेकिन झलूर कांड के कारण कुछ काम छूट गया. इसके बावजूद हम चुनाव में जो कुछ भी हो सकता है नोटा के नारे से, हम करेंगे.'
झलूर की घटना के बाद किसी भी राजनीतिक दल का कोई प्रतिनिधि गांव में आज तक नहीं पहुंचा है. दो साल पहले इस आंदोलन में एक बार संगरूर के लोकसभा सांसद भगवंत मान ज़रूर आए थे, लेकिन दो साल पहले जब भावपुर में दलितों का सामाजिक बहिष्कार हुआ तो वे लोग यह सोचकर पीछे हट गए कि हम कहां खड़े हों, किसानों के साथ या भूमिहीनों के साथ.
पप्पी बताते हैं, 'संसद में भगवंत मान ने झूठ कहा कि 302 के मामले ज़मीन के मुद्दे से नहीं जुड़े हैं. इसके विरोध में हमने गांव में उसके पुतले भी जलाए.' पप्पी कहते हैं, 'मेरा एक मित्र आम आदमी पार्टी में नेता है. उसने साफ़ कहा कि जब गैर-दलित 66 परसेंट हैं तो उनका वोट ज्यादा मायने रखता है. हमारा मसला तो वोट का ही है.'
उनके मुताबिक बसपा इस आंदोलन के पक्ष में देर तक बोलती रही, कांग्रेस के प्रधान बाजवा भी एक बार आए लेकिन जब उन्हें लगा कि यह मुद्दा लंबा चलने वाला है, तो वे पीछे हट गए. वे बताते हैं, 'बसपा के प्रधान धनराज सिंह सेरो तो डीएसपी से मिलकर आए कि ये दलित समस्या पैदा कर रहे हैं. कम से कम हमारे गांवों में तो बीएसपी को वोट नहीं पड़ेंगे. पंजाब में तो वैसे भी ये बोला जाता है कि बीसपी के साथ अकाली का एग्रीमेंट होता था दो-तीन सौ करोड़ में. इस बार आम आदमी पार्टी के आने से उलटफेर हो गया, वरना पहले तो ऐसे ही चलता था. पुराना सेट अप इस बार टूट गया है.'
जिस पुराने सेट अप के टूटने की बात पप्पी कर रहे हैं, वह मालवा के गांवों में साफ़ दिखता है. चुनाव प्रचार के दौरान पटियाला के पीपुल्स आर्ट्स ग्रुप के कलाकार गांव-गांव घूमकर लोगों को 'मंत्रीजी' नाम का एक नुक्कड़ नाटक दिखा रहे हैं. ऐसे ही एक गांव हसनपुरा में नाटक खेलने के बाद हुई चर्चा के दौरान पंचायत सदस्य निक्का सिंह कहते हैं कि उनके गांव में अब भी दो सवा दो सौ वोट बसपा के बचे हुए हैं, लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि उसके मतदाता किसी वास्तविक दलित पार्टी के न होने के कारण हाथी को वोट दे रहे हैं.
"दलितों की संख्या के मामले में सबसे बड़े राज्य पंजाब की सियासत इस तबके की दिक्कतों की ओर से संवेदनहीन है"
निक्का सिंह बताते हैं कि उनके गांव में आंदोलन ने तमाम उत्पीड़न के बावजूद 65 बीघे ज़मीन छ़ुड़वाई है. वे कहते हैं, 'हम दलितों की इतनी ताकत है कि हम जिसे कहेंगे, वही हमारा सरपंच बनेगा.' निक्का एक दिलचस्प बात कहते हैं, '1992 में बसपा की 9 सीटें आई थीं. उसने हमारा काफी नुकसान कर दिया. उस समय खालिस्तान मूवमेंट के कारण अकाली ने चुनाव का विरोध किया था. इसलिए बसपा को सीटें आ गईं. उस समय जो नौ विधायक जीते, वे सभी बाद में इधर-उधर भाग गए. अगर वे न चुने गए होते, तो आंदोलन अब तक दलितों की सरकार बनवा लेता.''
ऐसा मानने वाले दलित हालांकि बहुत नहीं हैं. अब भी मायावती के समर्थकों को यह लगता है कि बसपा पंजाब में सरकार बनाएगी. नवांशहर से मायावती की रैली में फगवाड़ा आए अमनदीप ऐसे ही एक युवा हैं. फगवाड़ा की अनाज मंडी में मजदूरी कर रहे उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के दलित कैना थोड़ा परिपक्व हैं. उन्हें इस बात का दुख है कि तीन बार के विधायक रहे रोशन लाल को मायावती ने पार्टी से निकाल दिया.
कैना कहते हैं, 'इससे कुछ नुकसान होगा.' पार्टी को पिछली बार एक भी सीट पंजाब में नहीं मिली थी, लेकिन मायावती समर्थकों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. निक्का सिंह हालांकि एक ज़रूरी बात कहते हैं, 'कांशीराम लोगों की बात सुनते थे. मायावती किसी की नहीं सुनती.'
दिलचस्प बात यह है कि मायावती के समर्थक भी दबी जुबान में आम आदमी पार्टी को इस बार वोट देने की बात कर रहे हैं. इससे समझ में आता है कि दलितों के बीच राजनीतिक प्रतिनिधित्व का वास्तव में अभाव है. जो ताकतें वास्तव में दलितों की हितैशी हैं, उनकी अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है.
असल सवाल जमीन और किसानी के मुद्दे को राजनीतिक मुद्दे में तब्दील करने का है. राज्य में चार दशक से किसान आंदोलन से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता डॉ. दर्शनपाल इस बात पर चिंता जाहिर करते हैं कि किसान नेता, युवा नेता, दलित नेता, मजदूर नेता तो उभर जाते हैं लेकिन वे राजनेता के रूप में स्वीकार नहीं किए जाते.
वे कहते हैं, 'हमें कोई ऐसा तरीका खोजना होगा जिससे किसानों का नेता केवल किसानों का नेता न रहे बल्कि मुख्यधारा की राजनीति में समाज उसे अपना नेता माने. जब तक आंदोलन से निकला आदमी नेता के रूप में नहीं स्वीकारा जाएगा, तब तक बुनियादी बदलाव के तरीके खोजे जाते रहेंगे. यह आज मूवमेंट के सामने सबसे बड़ी समस्या है.'
फिलहाल दलितों की संख्या के मामले में सबसे बड़े राज्य पंजाब की सियासत इस तबके की दिक्कतों की ओर से संवेदनहीन है, लेकिन इनके वोटों को इतनी आसानी से नज़रंदाज नहीं किया जा सकता. एक ओर नोटा की बढ़ती ताकत है, तो दूसरी ओर ज़मीन कब्ज़ाने को लेकर मज़बूत होता आंदोलन.
डॉ. दर्शनपाल एक अहम बात कहते हैं, 'पंजाब की स्थिति दूसरे राज्यों से भिन्न है. यहां ज़मीन का आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में ज्यादा आसानी से तब्दील हो सकता है.' मतदान से ठीक चार दिन पहले 31 जनवरी को बठिंडा में 'राज बदलो, समाज बदलो' का नारा लेकर राज्य भर से जुटी दलितों, किसानों और भूमिहीनों की भीड़ अगर कोई संकेत है, तो उसकी उपेक्षा करना राजनेताओं और राजनीति के लिए बहुत घातक साबित होगा.
साभार : हिंदी catch
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