स्वतंत्र पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने सूखा, पलायन, भूखमरी और किसानों की आत्महत्या से पस्त बुंदेलखंड से लोट कर यह लम्बी रिपोर्ट लिखी है जिसे हम चार किस्तों में आपसे साझा करेगे. पेश है बुंदेलखंड की जमीनी हालत पर लिखी रिपोर्ट का दूसरा भाग;
बारह साल से मिट्टी फांक कर खुद को एक जिंदा गठरी में तब्दील कर चुकी शकुन रायकवार की कहानी खेतों-गांवों से बने इस समाज, लोकतंत्र और राष्ट्र के नाम पर ऐसी शर्मिंदगी है जिसे मिटा पाना किसी के वश में नहीं.......
मशहूर लोकगीत 'चोला माटी के हो राम...' लिखने वाले कवि ने भी नहीं सोचा होगा कि मिट्टी की यह देह जब मिट्टी में मिल जाएगी, तो उसके भीतर से मिट्टी ही मिट्टी बरामद होगी. बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के राजवारा गांव की आदिवासी महिला शकुन की देह तो अब तक जिंदा है, अलबत्ता उसके भीतर इस रह-रह कर यह धरती अंगड़ाई लेती रहती है. उसका पेट पत्थर हो गया है. उसका दिल पत्थर हो गया है. उसके पथरीले चेहरे पर रह-रह कर उभर आता दर्द इस बात की सर्द गवाही दे रहा है कि बुंदेलखंड वैसे तो सूखे से जूझ रहा है, लेकिन यहां भूख का सवाल फिलहाल उससे कहीं ज्यादा बड़ा है.
ललितपुर में सहरिया आदिवासियों की साठ फीसदी आबादी अब तक पलायन कर चुकी है. गांव के गांव खाली हो चुके हैं. घरों में ताला लटका है. जो बचे हैं, उनके पीछे न तो कुदरत की मेहर है और न ही राज्याश्रय. ये धरती के असली लाल हैं जो उसी सूखी धरती पर आश्रित हैं जो उन्हें दो जून की रोटी तक नहीं दे पा रही. रोटी नहीं तो क्या हुआ, मिट्टी ही सही. बारह साल से मिट्टी फांक कर खुद को एक जिंदा गठरी में तब्दील कर चुकी शकुन रायकवार की कहानी खेतों-गांवों से बने इस समाज, लोकतंत्र और राष्ट्र के नाम पर ऐसी शर्मिंदगी है जिसे मिटा पाना किसी के वश में नहीं.
राजवारा गांव आबादी के लिहाज से काफी बड़ा है. यहां पंडितों का एक अलग टोला है. पिछड़ी जातियां आबादी में मिश्रित हैं लेकिन सहरिया आदिवासियों की बस्ती बिलकुल अलग बसी हुई है. इसी बस्ती में शकुन रायकवार नाम की विधवा रहती हैं. इनके पास बरसों से खाने को कुछ भी नहीं है. इनके दो बच्चे हैं. पति पांच बरस पहले गुज़र चुके हैं. हम जब इनके घर पहुंचे, तो वे किसी के घर पानी पीने गई हुई थीं. आते ही ज़मीन पर बैठक कर अपना पेट उघाड़ कर दिखाने लगीं. पेट पत्थर की गठरी बन चुका है.
स्थानीय निवासी सुनील शर्मा बताते हैं, ''ये बारह साल से मिट्टी खा रही है.'' उसी गांव के रहने वाले रसूखदार नौजवान आशीष दीक्षित कहते हैं, ''कभी हमारे यहां तो कभी कहीं और से इसे दाना-पानी मिल जाता है. अब तक गांव वाले ही इसे देते आए हैं. जब कुछ नहीं होता तो ये मिट्टी खा लेती है.''
शकुन के दोनों बच्चों का कोई अता-पता नहीं है. वे भी गांव से मांगकर खा रहे हैं और जिंदा हैं. दिक्कत यह है कि समूचे सहरिया समुदाय की हालत भी कोई ऐसी नहीं कि समुदाय इस महिला को मिलकर पाल सके. एक सहरिया युवक बगल की मड़ई पर खरोंचों के निशान दिखाते हुए कहते हैं, ''ये सारी मिट्टी इसने नोच-नोच कर खा ली.''
शकुन के पास सामाजिक योजनाओं का कोई कार्ड नहीं है. वह अपनी बोली में बताती हैं, ''हमसे न पानी भरा जाता है, न कोई काम होता है. पेट में बहुत दर्द होता है. बार-बार टट्टी जाना पड़ता है. एक रोटी भी हज़म नहीं होती.''
यहां हर अगली कहानी पिछली पर भारी है. शकुन को रोटी खिलाने वाले राजवारा के दीक्षित परिवार के साथ अपनी चर्चा के बीच लाल साड़ी पहने और घूंघट डाले एक बुजुर्ग महिला बैठक में आकर अचानक सबका पैर छूने लगती है. इस महिला को यहां कोई नहीं जानता. इसका नाम भागवती है. वह जाखलौन से एक टैक्सी में बैठकर यहां आई है. जाखलौन यहां से 30 किलोमीटर दूर पड़ता है. इस महिला की नतिनी की शादी है. उसे नतिनी के यहां शगुन भिजवाना है.
शगुन भिजवाने की प्रथा को यहां 'चीकट' कहते हैं. इसमें लड़की के घर साड़ी और बरतन भिजवाए जाते हैं. भागवती के दोनों लड़के मजदूरी करते हैं. वह कहती है, ''परिवार में 14 लोग हैं. कोटा के तीन किलो गेहूं और दो किलो चावल से क्या होगा. कुछ मदद कर दो.'' लोग बताते हैं कि यहां के गरीबों में चलन है कि वे घर-घर जाकर शादी के लिए मांगते हैं. तीस किलोमीटर से चलकर शगुन का सामान जुटाने आई भागवती से हमने पूछा कि यहां कैसे पहुंची, तो उसका सीधा जवाब होता है, ''सड़क से हमने देखा कि आप लोग कमरे में बैठे हुए हैं, तो चली आई. कुछ पैसे दे दो... अनाज दे दो.''
शकुन भी हमसे पैसे मांगती है. पहले वह 500 रुपये मांगती है. हम उससे इलाज की बात कहते हैं तो वह 100 रुपये पर आ जाती है. पैसे का क्या करोगी? ''पेट का इलाज करवाऊंगी'', वह कहती है. हम उसे सरकारी इलाज का भरोसा देने की कोशिश करते हैं तो उसका चेहरा कठोर हो जाता है. गांव वाले बताते हैं कि पति के गुज़रने के बाद इनकी ऐसी हालत हुई है. खेतीबाड़ी करने की ताकत इनमें रह नहीं गई. बच्चों की भी मांगकर खाने की आदत पड़ गई. भूख लगने पर वे भी कभी-कभार मिट्टी से ही काम चलाते हैं. लगातार पड़ने वाले सूखे के कारण राजवारा के सहरिया आदिवासियों की खेती तीन साल पहले ही तबाह हो चुकी है. वह अंत तक पैसे मांगती है. भागवती पैसे और अनाज लेकर उठने लगती है तो परिवार के एक युवक बृजेश कहते हैं, ''अपना चेहरा तो दिखा दो.'' वह घूंघट के भीतर से बोलती है, ''भइया, बदनामी हो जाएगी.'' शकुन का मिट्टी खाना या भागवती का एक गांव से दूसरे गांव जाकर भीख मांगना यहां के सामान्य नज़ारे हैं. इससे यहां के भूखे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता. वे जानते हैं कि कल को उनकी भी हालत ऐसी ही हो सकती है.
आजकल राजवारा में एक बड़ा तालाब गहरा करने का काम चल रहा है. कुछ बुजुर्ग और जवान सहरिया वहां मिट्टी ढोते दिखते हैं. खुदाई के काम का निरीक्षण कर रहे ग्राम पंचायत के एक सदस्य बताते हैं कि तालाब गहरीकरण कार्य में 388 मजदूर पंजीकृत हैं, हालांकि सबके जॉब कार्ड नहीं बने हैं. इनमें 227 महिलाएं हैं. यह संख्या संदिग्ध है क्योंकि मस्टररोल पर केवल 335 लोगों के नाम चढ़े हैं. बृजेश कहते हैं, ''कल ही मैंने देखा कि मस्टररोल में 174 लोगों के नाम चढ़े थे. सब गांव छोड़कर जा चुके हैं. इतने लोग कहां से मिलेंगे काम के लिए?'' गांवों में पुरुषों की संख्या तकरीबन नगण्य है. महिलाएं बेकार बैठी या तो आम की गुठलियां चूस रही हैं या फिन्नी (एक स्थानीय फल) खा रही हैं. इस बीच सरकारी एएनएम रंजना नामदेव आशा कार्यकर्ता शकुंतला के साथ टीकाकरण का किट लेकर वहां पहुंचती हैं और उन महिलाओं को इस बात पर झिड़कती हैं कि वे समय पर टीका लगवाने क्यों नहीं पहुंचीं. उनमें एक बुजुर्ग महिला विमला जवाब में कहती हैं, ''समय पर नहीं हुआ तो अब लगवा दो.'' एएनएम पूछती हैं, ''ये बताओ, अभी बोने पर गेहूं होगा क्या?'' विमला ना में जवाब देती है. एएनएम कहती हैं, ''तब? हर काम समय पर होना चाहिए.''
विमला कहती हैं, ''समय पर गेहूं लगा भी दिया और जो पानी नहीं पड़ा, तब?'' इस पर सारी महिलाएं हंस देती हैं. एएनएम झेंप कर चल देती हैं.
साभार : catch हिंदी
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