गांधी जयंती के मौक़े पर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के कोई 14 गांवों के किसानों ने कोयला क़ानून तोड़ने का साहसी काम किया। कोयले पर अपनी दावेदारी दर्शाने के लिए उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से अपनी ज़मीन से कोयला खोदा। नारा दिया कि ज़मीन हमारी तो कोयला भी हमारा। किसानों का यह क़दम इस नारे को सच में बदले जाने के संघर्ष की शुरूआत है। पेश है इस प्रेरणादायी कोयला सत्याग्रह पर मनीष सिंह की टिप्पणी;

बस एक मिनट के लिए नमक को कोयला और गारे को दांडी मान लीजिये, सारा तर्क समझ में आ जायेगा. ये तर्क तो गाँधी के तर्क से भी मजबूत है .आखिर समुद्र के पानी पर तो नमक सत्याग्रहियों की हकदारी कुछ भी नहीं थी . मगर गारे के कोयला सत्याग्रहियों का तो उस जमीन पर पुश्तैनी हक़ है.
कानून देश काल और परिस्थिति के अनुसार बनते हैं. कानूनसम्मत होना ही उचित और सत्य होने का पर्याय नहीं . हिटलर राज में jew होना ही गैरकानूनी था. अमेरिकी कानून ने १०० साल मानवीय गुलामी को वैधानिक माना. सुचना अधिकार कानून के तहत जो जानकारी आप सरकार से ले लेते हैं , उस जानकारी का एक कागज आपके पास मिलना “आफ़िशिअल सीक्रेट एक्ट” में आपको जेल की चक्की पिसवाने के लिए काफी था. मोदीजी की सरकार २००० से अधिक क़ानून फालतू मानकर ख़त्म करने पर काम कर रही है . तात्पर्य ये कानून कोई पत्थर की लकीर नहीं . सोच और जरूरत के अनुसार क़ानून बनते, ख़तम होते या बदलते हैं.
जिन्दा लोकतान्त्रिक देश में जनअकांक्षाओ के अनुसार कानून बनने चाहिए. कोयला कानून और भू अधिग्रहण में और में बदलाव की जरूरत है. अपने हक़ को मुआवजे के तराजू पर तौलने तथा कम्पनियों के दो फीसदी सीएसआर पर मोहताज रहने को गारेवासी तैयार नहीं. ये असहमति उनका हक है.
गारेवासिओ ने एक कदम आगे बढ़कर, अपनी बाकायदा कम्पनी बनायीं है. अपनी भूमि खुद की कम्पनी को बगैर मुआवजा देने को तैयार हैं. इस सहकारीता और एकता को सरकार एक मॉडल के रूप में देखे, समर्थन और अधिकार दे. आप खोदने का अधिकार दो, इन्वेस्टर तो लाइन लगा कर आयेंगे. अगर जनता के संसाधन का मुनाफा एंटीलियागमन की बजाय अगर गारे-डीपापारा में ही निवास करे, तो अच्छे दिन दूर नहीं.
भई , एक प्रयोग करने में क्या हर्ज़ है.
और हाँ , इसे अवैधानिक सत्याग्रह न कहिये . सत्य के प्रति आग्रह कभी अवैधानिक नहीं हो सकता.
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