ग्रीस : लोकतंत्र में गरिमा की वापसी

ग्रीक त्रासदियों के लिए विख्यात यूनान (अब ग्रीस) ने इस बार सुखांत करके सिद्ध कर दिया है कि आधुनिक लोकतंत्र के इस जनक देश में ढाई सहस्त्राब्दी से चली आ रही लोकतंत्र की जड़ें अभी कमजोर नहीं हुई हैं। ग्रीस में हुए जनमत संग्रह का परिणाम विश्वभर में लोकतंत्र व राष्ट्रों की सम्प्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखने में मददगार होगा। ग्रीस के जनमतसंग्रह के परिणाम पर फारुक चौधरी का (सप्रेस एवं कांउटर करंट से साभार) महत्वपूर्ण आलेख ;

अपने निर्णयात्मक जयघोष के साथ क्रूर ऋणदाताओं को ‘‘नहीं‘‘ कहते हुए ग्रीस के नागरिक गरिमा के साथ लोकतंत्र के पक्ष में खड़े हुए। यह लोगों की, लोकतंत्र की और  गरिमा की विजय है। यह नागरिकों की उन नृशंस व बर्बर बैंकरों पर विजय है जो ग्रीस का खून चूस कर उसे सफेद बना देना चाहते थे। यह अतिमितव्ययता, गरीबी और सार्वजनिक संपŸिायों की लूट के खिलाफ फैसला है। हाल ही में सम्पन्न जनमतसंग्रह में बड़ी संख्या में ‘‘नहीं‘‘ के चुनाव ने जतला दिया है कि ग्रीस के लोग महान निर्णय लेने में सक्षम हैं। यह दर्दनाक संघर्ष कई वर्षों से चल रहा था। ऋणदाताओं ने कई बार वस्तुतः ग्रीस पर शर्मनाक तरीके से शासन भी किया। लेकिन 5 जुलाई को ग्रीस के लोगों ने शानदार निर्णय देते हुए कहा कि हम ऋणदाताओं को अपने पर हुक्म नहीं चलाने दे सकते।

यह राजनीति के लिए एक सबक है और इसके विश्वव्यापी राजनीतिक निहितार्थ होंगे। देश के बेशरम राजनीतिक नेता शायद इससे सबक नहीं लेंगे। परन्तु विभिन्न देशों के नागरिक और उनके वास्तविक नेता इससे सीख लेंगे कि लोगों को प्रेरित करो, लोकतंत्र एवं गरिमा का संदेश फैलाओ और शक्तिशाली हितों के समक्ष घुटने मत टेको। बाजारों के सामने अब संकट के क्षण आने वाले हैं। बी.बी.सी. के आर्थिक संपादक राबर्ट पेस्टन ने लिखा है, ‘‘कल का दिन (6जुलाई) बाजारों के लिए अत्यन्त रोंगटे खड़े कर देने वाला दिन होगा। बाजार किंकर्तव्यविमूढ होगा और वह  उपहास का पात्र भी होगा।‘‘ यह बैंकरों और केंद्रीय बैंकों के लिए अनिश्चितता के क्षण भी होंगे। ग्रीस के बैकांे एवं अर्थव्यवस्था के सामने अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। इनके  आर्थिक और विŸाीय हल भी निकालने होंगे। ऋणदाताओं से संघर्ष की यह घटना ऐतिहासिक है। ऋणदाताओं द्वारा पूरे यूरोप में अनेक देशोें में अतिमितव्ययता की अपनी प्रणाली थोपने के बरस्क ऐसे राजनीतिक संघर्ष का अनुभव पहले नहीं हुआ था।

अतएव ‘‘नहीं‘‘ वाले इस निर्णय ने यूरोजोन के नेताओं के समूह को क्रोध में ला दिया है। ऋणदाता, उनका मीडिया और उनके बुद्धिजीवी जनमतसंग्रह की घोषणा के साथ ही भ्रम फैला रहे थे और लोेगों को डरा धमका रहे थे। यूरो नेताओं के समूह ने अन्तर्राराष्ट्रीय मुद्रा कोष की उस रिपोर्ट की जारी करने से रोकने का प्रयास भी किया जिसके अनुसार ग्रीस के ऋण टिकाऊ नहीं हैं। ऋणदाता जनमतसंग्रह की वैधानिकता पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। उन्होंने तो मतपत्र की प्रश्नावली पर ही प्रश्न उठा दिए। ग्रीस के भूतपूर्व विŸामंत्री यानिस वेरौफकिस ने तो यूरोजोन की रणनीति को ‘‘आतंकवाद‘‘ की संज्ञा दी है। यूरोपीय

अधिकारियों ने खुले तौर पर ग्रीस के लोगों से ‘‘हाँ‘‘ के पक्ष में मतदान की अपील की थी। यूरोपीय संसद के अध्यक्ष मार्टिन श्ल्झ ने कहा था ‘‘मुझे उम्मीद है लोग ‘‘हाँ‘‘ कहेंगे। जनमतसंग्रह के बाद यदि बहुमत ‘‘नहीं‘‘ के पक्ष में आता है तो उन्हें नई मुद्रा जारी करना पड़ेगी क्योंकि ग्रीस को भुगतान के माध्यम के रूप में यूरो उपलब्ध नहीं होगी। यह एक राष्ट्र के नागरिकों के सार्वभौम अधिकारों में सीधा हस्तक्षेप और खुली धमकी भी है। क्रगमेन का कहना है, ‘‘जनमतसंग्रह के पहले ग्रीस की जनता को वास्तव में डराने धमकाने प्रयत्न सिर्फ इसलिए नहीं किया गया कि वे ऋणदाताओं की माँगे ही मानें बल्कि अपनी वर्तमान सरकार से भी छुटकारा पा लें। यह आधुनिक यूरोपीय इतिहास का एक शर्मनाक क्षण है और अगर यह सफल हो जाता तो एक गंदी परंपरा कायम हो जाती।

दानदाताओं की लोकतंत्र के साथ ऐसी हरकत दिखाती है कि उनकी लोगों की सहभगिता वाले लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है। इस वजह से ग्रीस के नागरिकों की यह राजनीतिक लड़ाई अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वित्तमंत्री वेरौफकिस के अनुसार, ‘‘मुझसे कठोरता से कहा गया कि हम जो कदम उठा रहे हैं वह अत्यन्त विचित्र और असंगत है। आप इतने जटिल मसले को आम आदमी के सामने रखने का दुस्साहस कैसे कर सकते हो ?‘‘ ऋणदाताओं का व्यवहार दर्शाता है कि वे न तो सामान्य लोगों का, न करदाताओं जो कि अफसरशाही के वास्तविक नियोक्ता हैं, का सम्मान नहीं करते। अतएव ग्रीस के लाखों ‘‘सामान्य लोगों‘‘ ने ऋणदाताओं को अपना निर्णय सुना दिया। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि उनका देश सामान्य लोगों का ही है। वैरोफकिस का मानना है कि ‘‘नहीं‘‘ पर पड़ा मत लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के पक्ष में है और यह ग्रीस के आसपास जड़े लौह शिकंजे को तोड़ता भी है। यह लोकतांत्रिक यूरोप की ओर बढ़ा एक कदम है। बैंको को बंद कर वह ग्रीस के नागरिकांे को लज्जित करना चाहते थे। ग्रीस के लोगों का उठ खड़ा होना दुनियाभर के उन राष्ट्रों और व्यक्तियों के लिए उदाहरण है जिनके साथ ऐसा लज्जाजनक व्यवहार किया जा रहा है।

इस ‘‘नहीं‘‘ ने यूरोपीय संघ के नेताओं को आकस्मिक बैठक के लिए मजबूर कर दिया है। जर्मनी का मानना है कि ग्रीस को मुद्रा यूरो से दूर कर दिया जाए क्योंकि एथेंस ने समझौते के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं। वही एक वर्ग का मानना है कि नागरिकों की अवहेलना अब शासकांे को भारी पड़ेेेगी। इतना ही नहीं जर्मनी की दो महाकाय कंपनियों ने तो सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा कर दी है कि ‘‘नहीं‘‘ मत ने साझा मुद्रा की जड़ें हिला दी हैं अतएव अब ग्रीस को यूरोपीय संघ छोड़ना ही पड़ेगा। यानि लोगों को उनके जीवन को निर्धारित करने के संबंध में प्रश्न पूछने का कोई अधिकार नहीं है और यदि लोग कुछ तय कर भी लेते हैं तो ताकतवर समझौते को आगे नहीं आएंगे। यह पूर्णतया जनविरोधी रवैया है। ग्रीस के नागरिकों द्वारा जनमतसंग्रह का उपयोग लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है। यदि लोग अपनी राजनीति को  दिशा दे पाने में असफल हांेगे तो वे अपनी अर्थव्यवस्था को दिशा दे पाने में भी असफल होंगे।

इस मजबूत ‘‘नहीं‘‘ ने पूंजीवाद के दोषों को भी उजागर कर दिया है। मुख्यधारा के विद्वानों के एक समूह के अनुसार ‘‘नहीं‘‘ के पक्ष में पड़े मत ने यूरोपीय संघ की नींव दिला दी है। एक अन्य समूह के अनुसार इसके बाद विश्व में यूरोपीय संघ की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है। सच है कि विश्वसनीयता पूंजी की मदद  व चिंता करती है। इसे प्राप्त करने के लिए वह अनेक मनगढंत कहानियां गढ़ती है। ग्रीकएक्जिट (ग्रीस की निकासी) ग्रीस का चयन नहीं है। जर्मनी के उप चांसलर सिगमरे ग्रेब्रिअल का कहना है ‘‘ग्रीस के प्रधानमंत्री एलेक्स सिप्रास ने यूरोप और ग्रीस के बीच के उस अंतिम पुल को भी तोड़ दिया है जिसे लांघकर किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता था। ग्रीस को यूरोपीय संघ से निकालना आसान नहीं है, इसलिए उन्हें  उससे समझौता तो करना ही होगा। उम्मीद हैं आने वाले दिनोें में परिस्थितियां बदलेगी और लोेग सीखेंगे।

अपना मत देने के पहले प्रधानमंत्री सिप्रास ने जो कहा वह लोकतंत्र के लिए एक संदेश है। उन्होंने कहा था, ‘‘आज लोकतंत्र भय को पराजित करेगा। सबसे कठिन परिस्थितियों में भी लोकतंत्र को कोई ब्लेकमेल नहीं कर सकता। यह एक मूल्यवान विचार है और आगे बढ़ने का रास्ता है।‘‘ ग्रीस से मिला पहला सबक है, कि ‘‘नहीं‘‘ राजनीतिक है। यह लोकतंत्र है। यह गरिमा है।

श्री फारुक चौधरी ढाका स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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