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मंच पर भीड़ |
ज़्यादातर वक्ताओं ने मुसहरों को जी भर कर भाषण पिलाया। प्रवचन दिया कि उनकी दयनीय हालत के लिए अशिक्षा सबसे अधिक ज़िम्मेदार है। बेहतरी के लिए उन्हें शिक्षा से जुड़ना चाहिए। अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहिए और उनकी पढ़ाई-लिखाई का पूरा ख़याल रखना चाहिए। उन्हें साफ़-सफ़ाई के साथ रहने का सलीक़ा सीखना चाहिए। अंधविश्वासों, ओझा-सोखा और नीम हक़ीमों से बचना चाहिए। नशाखोरी के लिए उन्हें लताड़ लगाते हुए सीख दी गयी कि अगर वे अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाना चाहते हैं तो उन्हें बीड़ी-शराब से भी तौबा करनी चाहिए। किसी भाषणबाज ने तो बाक़ायदा हिसाब भी पेश कर दिया कि यह बुरी लत रोज़ाना उनकी कितनी कमाई हज़म कर जाती है, क़ि यह हिसाब माहवारी और इस तरह सालाना कितना बैठता है। इस फ़िज़ूलख़र्ची पर वे अगर लगाम लगायें तो कितनी बड़ी बचत कर सकते हैं। बताया गया कि उनमें बड़ी कमी यह भी है कि उन्हें ग़रीबों के भले के लिए चल रहे सरकारी कार्यक्रमों की ख़बर नहीं रहती। वे ख़ुद को बदलना नहीं चाहते, जानकार और समझदार नहीं होना चाहते। कुल सार यह कि मुसहरों में बस खोट ही खोट है और इसीलिए उनकी हालत इतनी ख़स्ताहाल है।
यह गुज़री 2 दिसंबर को बनारस के बरही नवादा गांव में आयोजित मुसहर-दलित-वंचित सम्मेलन का सीन था- तयशुदा कार्यक्रम और उसके मक़सद से एकदम उलट। सम्मेलन के आयोजन के पीछे मक़सद था कि मुसहरों के साथ दूसरे अति वंचित समुदाय जुड़ें। अपने दुख-दर्द साझा करें और बेहतरी के लिए उठाये जानेवाले ज़रूरी क़दमों पर फ़ैसला लें। इस तरह यथास्थिति के टूटने की शुरूआत हो।
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...और छलक पड़े आंसू |
सम्मेलन की तैयारी बैठक में आम राय बनी थी कि साझा संघर्ष की ज़रूरत इसलिए है कि तमाम वंचित समुदाय अलग-थलग रह कर बेहतरी की कोई लंबी और मज़बूत लड़ाई नहीं लड़ सकते। आज के हालात में मुसहर जैसे समुदायों का तो अपने बूते उठ खड़ा हो पाना ही लगभग नामुकिन सा है। नट-कंजड़ जैसे अति दलित समुदायों का भी कमोबेश यही हाल है। लेकिन हां, विभिन्न वंचित समुदाय मिल कर इतनी बड़ी ताक़त ज़रूर हो सकते हैं कि जिसे अनसुना करना या दबाना आसान न हो। उनका एकजुट दबाव ही उनकी बदहाल दुनिया को बदल सकता है। आगे पढ़े....
जैसा कि तय हुआ था- सम्मेलन वंचितों के सम्मान, पहचान और गरिमा के साथ उनके जीने के अधिकार पर फ़ोकस होना था। यह नज़रिया साफ़ था कि मुसहर अति दलित, अति वंचित समुदाय हैं। बेहद ग़रीब समुदायों में भी वे अति ग़रीब हैं। पुलिसिया और सामंती जुलुम की सबसे ज़्यादा और सबसे तीखी मार भी वही झेलते हैं। इसलिए सम्मेलन ने पहला ज़ोर मुसहरों पर दिया, इसे मुसहर-दलित-वंचित सम्मेलन नाम दिया।
इसे स्थानीय आयोजकों की नासमझी कहिये, या कि स्थानीय समीकरणों से निकल न पाने की उनकी मजबूरी या कि संसदीय राजनीति के तौर-तरीक़ों का बेतरह असर कि सम्मेलन अपने तयशुदा मक़सद से फ़िसलता गया। जिन्हें अपनी आपबीती सुनानी थी, दिल का ग़ुबार निकालना था और बेहतरी के लिए कोई रास्ता सुझाना था- वे सुननेवालों उर्फ़ ताली पीटनेवालों में तब्दील हो गये। सम्मेलन अति वंचितों की पाठशाला होता गया और मंच पर बैठे ज़्यादातर लोग उनके मास्टर बन बैठे, मसीहाई और नेताई अंदाज़ में आ गये। वंचित समुदायों के ज़िंदा रहने के हक़ का और इसके लिए उनकी अगुवाई का सवाल पीछे छूटने लगा।
कहना होगा कि आयोजन के प्रमुख सहयोगी बिहान ने इस सीन में दख़ल दिया और सम्मेलन को पटरी पर लाने का बड़ा काम किया। बताते चलें कि बिहान अधिकार आधारित नज़रिये के साथ सक्रिय सामाजिक संस्थाओं, जन संगठनों, समूहों और व्यक्तियों का साझा मंच है और जो उत्तर प्रदेश के आठ जिलों में अति वंचित समुदायों के बीच जीने का अधिकार अभियान नाम से दस्तक दे रहा है। सजे-धजे मंच पर कोई ढाई दर्ज़न लोग विराजमान थे जबकि मंच पर अधिकतम 12 लोगों को बैठना था जिसमें कम से कम पांच महिलाओं को होना था। जो तय हुआ, वह हवा हो गया। मंच पर जमा भरी भीड़ में कुल चार महिलाओं को जगह मिली और चारों को बोलने के लिए नहीं बुलाया गया। इनमें दो मुसहर महिलाएं थीं। तय हुआ था कि मंच पर कम से कम एक तिहाई मुसहर ज़रूर होंगे लेकिन मंच पर उनकी तादाद पांचवें हिस्से से भी कम हो गयी।
लेकिन ख़ैर, मंचासीन महानुभावों को नीचे नहीं उतारा जा सकता था। श्रोता बन कर बैठी तीन महिलाओं को किसी तरह बोलने के लिए राजी किया गया। तीनों अकेले बोलने में हिचकिचा रही थीं। कहा गया कि तीनों एक साथ मंच पर पहुंचें और जो जी में आये, बेधड़क और बेख़ौफ़ बोलें। लेकिन यह तजवीज़ भी कोई बहुत कारगर साबित नहीं हुई। मंच पर पहुंच कर उनके सुर ढीले पड़ गये और ज़ुबान लड़खड़ाने लगी। यह अस्वाभाविक भी नहीं था। मंच पर पहुंच कर तो अक़्सर ठीकठाक लोग भी हड़बड़ा जाते हैं और अपनी बात शिद्दत से नहीं रख पाते। तीनों महिलाओं के लिए तो ख़ैर मंच पर खड़े हो कर बोलने का यह पहला मौक़ा था। उनके कान गर्म हो गये और गला सूखने लगा। उनकी बात आधी-अधूरी और अस्पष्ट रह गयी।
ऐसे में बिहान के एक वरिष्ठ साथी ने कार्डलेस माइक संभाला और वे सीधे महिला श्रोताओं के बीच पहुंच गये। कहा कि ठीक है कि मुसहरों और दूसरे वंचित समुदायों का शिक्षा से नाता जुड़ना चाहिए लेकिन जहां दो जून पेट भरने का सवाल सबसे बड़ा हो, वहां शिक्षा की अलख जलने की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? पहला सवाल बीड़ी-शराब की लत का नहीं, इंसान और देश के नागरिक की तरह जीने की बुनियादी ज़रूरतों और सहूलियतों की ग़ैर मौजूदगी का है। सवाल यह है कि आज़ादी के इतने बरस गुज़र जाने के बावजूद मुसहर और दूसरे वंचित ग़ैर इंसानी हालात में जीने को मजबूर क्यों है? दूसरे दर्ज़े के नागरिक की हैसियत में क्यों हैं? लगभग एक जैसे हालात होने के बावजूद उनके बीच इतनी दूरियां क्यों हैं, इसे किसने पैदा किया है और क्यों? इसे जाने बग़ैर पाटा नहीं जा सकता।
इसी कड़ी में अपील हुई कि अब जो बोलना चाहती हैं, खड़ी हों। जहां बैठी हैं, वहीं से अपनी बात कहें। उन्हीं के लिए यह सम्मेलन है। आज अगर वे ख़ामोश रहीं तो और अंधेरा छायेगा, हालात सुधरने के बजाय और ज़्यादा बिगडेंगे। उनका भला करने कोई मसीहा नहीं आयेगा। सबसे बड़ा मसीहा दुख, अभाव और ज़िल्लत झेल रहे लोग ख़ुद हैं। उनकी एकता और लड़ाकूपन ही जादू की असली छड़ी है जो उनकी बदक़िस्मती को अंगूठा दिखा सकती है, उन्हें शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति दिला सकती है, उन्हें इंसानी हैसियत में पहुंचा सकती है।
इस अपील का तगड़ा असर पड़ा। देखते-देखते माइक पकड़ने के लिए उतावली महिलाओं की लाइन लग गयी। सम्मेलन का समां ही बदल गया और मंच बेरौनक़ हो गया। महिलाओं का दुख और ग़ुस्सा फूट पड़ा- कि उनके पास ज़मीन नहीं, रोजगार नहीं, जाब कार्ड नहीं, राशन कार्ड नहीं, इंदिरा आवास नहीं, आंगनवाड़ी जैसी सुविधा नहीं, स्कूलों में उनके बच्चों के साथ बराबरी का बर्ताव नहीं...। कि उन्हें पुलिस भी सताती है और बड़े लोग भी। कि उन्हें नीच, गिरा हुआ और चोर समझा जाता है। कि उनके लोगों पर फ़र्ज़ी मामले ठोंक दिये जाते हैं, हवालात और जेल पहुंचा दिया जाता है। उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती, उनके मामले की पैरवी के लिए कोई आगे नहीं आता और उनके लोग झूठे मुक़दमों में फंस जाते हैं, जेल में सड़ जाते हैं। चुनाव के दौरान भी कोई उम्मीदवार उनकी बस्ती का रूख़ नहीं करता। एक महिला ने तो मंच पर बैठी पड़ोस की महिला ग्राम प्रधान पर ही निशाना साध दिया कि उन्हें केवल अपनी बिरादरी के लोगों के ही भले की चिंता रहती है। गोद में बच्चा संभाले अपना दर्द बयां करते हुए एक महिला के तो आंसू बह निकले।
सम्मेलन का समय पूरा होने का था। तो भी अपनी बारी के आने का इंतज़ार कर रही महिलाओं की लाइन बरक़रार थी। बहरहाल, यह सिलसिला रो पड़ी उस महिला के अपनी बात ख़त्म करते के साथ ही रोक दिया गया। यह कहते हुए कि यहां तो हरेक के पास दर्दभरी कहानियां हैं, घुप्प अंधेरा है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहते आंसू हैं। सवाल है कि इन आंसुओं को कैसे ग़ुस्से में बदला जाये, बदलाव का रास्ता किस तरह खोला जाये, अंधियारे से कैसे निपटा जाये? नारा लगा कि जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई। इसी के साथ मंच से राष्ट्रपति को भेजे जानेवाले मांगपत्र का पाठ हुआ और साझा संघर्ष के संकल्प के साथ सम्मेलन का समापन हो गया।
सम्मेलन के आख़िरी दौर ने आयोजन के ज़िम्मेदारों की आंख खोल देने की भूमिका अदा की। पहले यह रोना रोया गया था कि देखिए, तमाम मनुहार के बावजूद महिलाएं मंच पर पहुंचने से हिचकिचा रही हैं। इस दृश्य परिवर्तन के बाद सबने माना कि इसके पीछे मंच का बेहद औपचारिक और अनजाना सा माहौल था जिसने उनकी हिम्मत को रोके रखा और सम्मेलन के असली साझेदारों की ज़ुबान पर ताला जड़ दिया।
यह सीख थी कि सदियों से वंचना और उत्पीड़न झेल रहे समुदाय और ख़ास कर महिलाएं अनौपचारिक माहौल में ही ख़ुल सकती हैं। सबने माना कि आयोजन की यह सबसे बड़ी खोट थी कि मंच और श्रोताओं के बीच दूरी बन गयी। सम्मेलन के फ़ौरन बाद ज़िम्मेदार साथियों ने तीन दिन बैठने का फ़ैसला किया ताकि इस नयी पहलक़दमी को ठोस ज़मीन दिये जाने की समझ और उसकी कारगर रणनीति विकसित की जा सके। इस मायने में ज़रूर इस सम्मेलन ने अगले दख़ल का दरवाज़ा खोलने का काम किया। सम्मेलन के आयोजन पर हुए समय, ऊर्जा और धन के ख़र्च की यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
मुसहर-दलित-वंचित सम्मेलन का आयोजन स्थानीय स्तर पर सक्रिय तीन जन संगठनों की साझा पहल पर हुआ था- मेहनतकश मोर्चा, आदिवासी वनवासी कल्याण समिति और मानवाधिकार जन चिंतन समिति। आयोजन के सहयोगी की भूमिका में थे- बिहान, लोक हक़दारी मोर्चा और कासा।
महिलाओं ने बयान किये दर्द
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